पंच उपादान-स्कन्ध की व्याख्या ॥
॥ पंच उपादान-स्कन्ध की व्याख्या ॥ रूप, वेदना, सञ्ञा, संखार, विञ्ञाण; ये पंच उपादान स्कन्ध हैं। पंच स्कन्ध और पंच उपादान स्कन्ध दोनों अलग-अलग चीज हैं। “भिक्षुओं ! रूप स्कन्ध क्या है ? भिक्षुओं ! अतीत, अनागत और वर्तमान के जितने भी रूप है, अपना हो या पराया, कठोर हो या मुलायम, ऊँच हो या नीच, नजदीक हो या दूर वे सभी रूप स्कन्ध हैं।” इसका अर्थ यह है कि किसी के मरने पर उसका रूप अतीत में चला जाता है। कोई अभी जीवित है तो उसका रूप वर्तमान में है। जिसने अभी तक जन्म नहीं लिया है तो उसका रूप भविष्य का है। अपना शरीर अध्यात्मिक रूप होता है। दूसरों का शरीर बाहरी रूप होता है। कठोर शरीर कठोर रूप होता है। मुलायम शरीर मुलायम रूप होता है। नीच योनि में जन्मा शरीर नीच रूप होता है। ऊँच योनि में जन्मा शरीर ऊँच रूप होता है। दूर का शरीर दूर रूप होता है। नजदीक का शरीर नजदीक रूप होता है। ये अर्थ ना लेकर यदि हम कोई दूसरा अर्थ ले, तो विपस्सना चिंतन गड़बड़ा जायेगा। यहाँ उपादान की चर्चा नहीं है। केवल स्कन्ध के बारे में बताया गया है। अतीत, अनागत, वर्तमान काल में अध्यात्मिक, बाहरी, कठोर, मुलायम, नीच, ऊँच, दूर, नजदीक...