रेखा चित्र का स्वरूप और परिभाषा विकास यात्रा स्पष्ट कीजिए

रेखाचित्र से आप क्या समझते है? इसके स्वरूप एवं विकास की विवेचना कीजिए ।

रेखाचित्र साहित्य की वह गद्यात्मक विधा है। इसे चित्रकला और साहित्य के सुन्दर समन्वय से उद्भूत एक अभिनव कला का प्रतिबिम्ब माना जाता है। इस विधा में किसी विषय-विशेष का उसकी बाह्य विशेषताओं को उभारते हुए, विभिन्न संक्षिप्त घटनाओं को समेटते हुए, शब्द-रेखाओं के माध्यम से सजीव, सरस, मर्मस्पर्शी एवं प्रभावशाली चित्र उभारा जाता है। इसका कार्य यह है कि वह वर्णित पात्र के रूप-सौन्दर्य तथा विभिन्न परिस्थितियों में उसके द्वारा की गई विभिन्न घटनाओं की सहायता से उसके चरित्र का एक प्रभावी एवं संवेदनशील चित्र अंकित कर दे। डॉ. मक्खनलाल शर्मा की मान्यता है- “जिस प्रकार चित्र का उद्देश्य किसी भाव विशेष को दृष्टा के हृदय से जागृत कर देना होता है, ठीक उसी प्रकार रेखाचित्र भी इतिहास, घटना, मनोविज्ञान, वातावरण आदि की सहायता से अभीप्सित भाव की अनुभूति करा देता है और थोड़ी देर के लिए पाठक एक नवीन मानसिक अवस्था को प्राप्त कर रसमग्न हो जाता है।”

पद्मसिंह शर्मा को कुछ विद्वान रेखाचित्र विधा का जनक मानते हैं, परन्तु इसका स्वतन्त्र रूप से और ‘रेखाचित्र’ नाम से श्रीगणेश करने का श्रेय श्रीराम शर्मा को दिया जाता है। श्रीराम शर्मा के ‘ बोलती प्रतिमा’ शीर्षक में कई रेखाचित्र हैं, जिनमें ‘ बोलती प्रतिमा’, ‘प्राणों का सौदा’, ‘जंगल के जीव’, ‘वे जीव कैसे हैं’ आदि उनके रेखाचित्र हैं।

रेखाचित्र की यात्रा पर्याप्त सुपुष्ट एवं लम्बी है। कुछ प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित रेखाचित्रकारों का परिचय यहाँ निम्नवत दिया गया है-

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के ‘कुछ’ नामक संग्रह के निबन्ध भी इसी कोटि के माने जाते हैं। ये निबन्ध हैं- ‘रामलाल पाण्डे’, ‘चक्करदार चोरी’, ‘एक पुरानी कथा’, ‘बन्दर की शिक्षा’, ‘शौर्य की कथा’, ‘कुंज बिहारी’ आदि।

पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के मतानुसार- रेखाचित्रात्मक निबन्ध, अधिकतर व्यक्ति वैशिष्ट्य से युक्त होते हैं, इनमें हास्य, विनोद, व्यंग्य-वक्रता, चुटकी-चकोटी का पुट रहता है। ये निबन्ध इसी प्रकार के हैं।

रामवृक्ष बेनीपुरी महान् शैलीकार थे। परिमाणत: उनका योग पाकर साहित्य रचना का यह रूप चमक उठा। उनके कई संग्रह प्रकाशित हुए। ‘लाल तारा’, ‘माटी की मूरतें’, ‘गेहूँ और गुलाब’। डॉ हरवंशलाल शर्मा ने लिखा है- ‘रेखाचित्र को इतने साज-संवार के साथ गढ़कर कोई दूसरा व्यक्ति नहीं रख सका। शैलियां बदलती रहती हैं, कहीं संस्मरणात्मकता, कहीं नाटकीयता, कहीं डायरी, परन्तु भाषा सर्वत्र सहज चलती हुई होती है, जिसमें छोटे-छोटे भाव-भीने वाक्य पाठकों को मुग्ध किये रहते हैं।

देवेन्द्र सत्यार्थी ने भावात्मक रेखाचित्रों का सृजन किया है। उनका संग्रह है ‘रेखाएँ बोल उठीं’ जिसमें ‘रेखाएँ बोल उठी’, ‘सौन्दर्य बोध’, ‘आज मेरा जन्म दिन है’, ‘रवीन्द्रनाथ ठाकुर’, ‘अच्छे भले आदमी की बात’, ‘चिर नूतन चित्र’, ‘दादा-दादी’ आदि श्रेष्ठ हैं।

रेखाचित्र को स्वतन्त्र अस्तित्व प्रदान करने में बनारसीदास चतुर्वेदी का भी योगदान कम नहीं है। उन्होंने एक ओर तो उत्कृष्ट कोटि के चालीस रेखाचित्र प्रदान किये, दूसरी ओर उनकी भूमिका में प्रकाश भी डाला- “जिस प्रकार अच्छा चित्र खींचने के लिए कैमरे का बैँस बढ़िया होना चाहिए और फिल्म भी काफी सेन्सिटव, उसी प्रकार साफ चित्र के लिए रेखाचित्रकार में विश्लेषणात्मक बुद्धि तथा भावुकतापूर्ण हृदय दोनों का सामंजस्य होना चाहिए, परदुखकातरता, संवेदनशीलता, विवेक और सन्तुलन-इन सब गुणों की आवश्यकता है।

महादेवी वर्मा के कई संग्रह प्रकाशित हुए- ‘अतीत के चलचित्र’, ‘स्मृति की रेखाएँ’, और ‘पथ के साथी’ आदि। कुछ विद्वान इन्हें संस्मरणात्मक रेखाचित्र मानते हैं।

प्रकाशचन्द्र गुप्त के ‘पुरानी स्मृतियाँ’ और ‘नये स्केच’ संग्रह भी महत्वपूर्ण हैं। डॉ. राजनाथ शर्मा के अनुसार, “इन्होंने पूर्ण आत्मीयता और कलापूर्ण ढंग से इनको सँवारा है। इन्होंने सड़क, नगर, मोहल्ला आदि निर्जीव वस्तुओं में मान, अभिमान, ईर्ष्या-द्वेष, स्नेह, छल-कपट, घृणा-ग्लानि आदि मानवीय भावों का आरोपण कर उन्हें मानव की सहानुभूति और प्यार का पात्र बना दिया है।” गुप्त जी ने कुछ ऐसे रेखाचित्र भी लिखे हैं जिनमें निबन्ध और रिपोर्ताज के मिले-जुले रूप उभरे हैं। समष्टि रूप से इनकी रचनाओं में राजनीतिक चेतना, समाजवादी दृष्टिकोण, स्नेह, सहानुभूति, करुणा आदि का प्राधान्य है।

‘विशाल भारत’ पत्रिका के शहीद अंक में विभिन्न लेखकों ने शहीदों के अनेक ऐसे सुन्दर रेखाचित्र लिखे थे जिनमें व्यक्ति का व्यक्तित्व, चरित्र, वेशभूषा कलात्मक ढंग से व्यंजित हो उठा था। ‘हंस’ ने रेखाचित्र विशेषांक (1939) प्रकाशित किया। इन विशेषांकों से रेखाचित्र विधा को पर्याप्त बल प्राप्त हुआ। इनके अतिरिक्त अन्य प्रतिष्ठित रेखाचित्रकार भगवतशरण उपाध्याय (वो दुनिया), हवलदार त्रिपाठी सहृदय (रांची का दासौड प्रताप), राजा राधिकारमण सिंह (टूटा तारा), देवेन्द्र सत्यार्थी (रेखाएँ बोल उठी), सत्यजीत वर्मा (एलबम), जगदीश चन्द्र माथुर (दस तस्वीरें), इन्द्र विद्यावाचस्पति (मैं इनका ऋणी हूँ), सेठ गोविन्ददास (स्मृति कण), आचार्य विनय मोहन शर्मा (रेखा और रंग), चन्द्रमौलि बख्शी (संन्यासी बाबा), रामप्रकाश कपूर (अन्जो देवी), हरिशंकर परसाई (बोलती रेखाएँ), डॉ. महेन्द्र भटनागर (विकृत रेखाएं, धुँधले चित्र संकलन) ।

उपरोक्त के अतिरिक्त संस्मरणात्मक रेखाचित्र और शुद्ध रेखाचित्र लेखकों में बाबू वृन्दावन लाल वर्मा, सुरेन्द्र दीक्षित, कृष्णदेव प्रसाद गौड़, बेढव बनारसी, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, प्रेमनारायण टण्डन, शिवपूजन सहाय, सत्यवती मलिक, रघुवीर सहाय, अविनाश, विद्या माथुर, राजेन्द्र कुशवाहा, निरंजन नाथ आचार्य, सुरेन्द्र दीक्षित, हर्षदेव मालवीय, प्रभाकर माचवें, राहुल सांकृत्यायन, उदयशंकर भट्ट, रेणु, मदन वात्स्यायान, कपिल, मेहताब अली, निर्मल वर्मा, विष्णु प्रभाकर आदि उल्लेखनीय हैं।

संस्मरण और रेखाचित्र वास्तव में एकदम निकट यानी मिली-जुली विधाएँ हैं। डॉ. नगेन्द्र के शब्दों में- “इनकी जाति एक है अथवा कहा जा सकता है ‘संस्मरण’ रेखाचित्र का एक प्रकार है, जिसमें किसी वास्तविक व्यक्ति का चित्र होता है। वस्तुतः शब्दचित्र या रेखाचित्र किसी के संस्मरण का कलात्मक संगठन है। संस्मरण किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के होते हैं और प्राय: मृत्यु के बाद लिखे जाते हैं, परन्तु रेखाचित्र में किसी भी व्यक्ति की प्रभावकारी विशेषताओं का जीता-जागता चित्र प्रस्तुत किया जाता है।”

यदि देखा जाय तो संस्मरण और रेखाचित्र का एक-दूसरे के साथ इतना घनिष्ठ सम्बन्धित है कि उनकी सीमाएँ कहाँ मिलती हैं और कहाँ अलग होती हैं, यह निर्णय करना अत्यन्त कठिन हो जाता है। दोनों के कलाकार अतीत से वर्तमान का सम्बन्ध जोड़ते हैं और इस प्रकार जोड़ते हैं कि वस्तु, व्यक्ति या घटना का यथार्थ रूप निखर आये और भावना तथा कल्पनामूलक रोचकता भी बनी रहे, साथ ही साथ लेखक की व्यक्तिगत रुचियाँ भी उभर आयें, फिर भी विद्वानों ने इन दोनों को पृथक विधा स्वीकार किया है।

वर्तमान समय में रेखाचित्र एक स्वतन्त्र विधा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है और इसकी तालिका भी पर्याप्त लम्बी है। फिर भी अभी उत्कृष्ट कोटि के रेखाचित्रों की कमी बनी हुई है। यह तो सन्तोष किया जाता है कि कुछ रचनाएँ ऐसी हैं जिन पर गर्व किया जा सकता है। इसका भविष्य उज्जवल हैं क्योंकि उसकी पूर्व पीठिका जो बनारसीदास चतुर्वेदी, महादेवी वर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि लेखकों द्वारा निर्मित हुई है, श्रेष्ठ है। यह विधा रोचकता के समावेश के कारण, कहानी के समकक्ष ठहरती है।


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