पंच उपादान-स्कन्ध की व्याख्या ॥

॥ पंच उपादान-स्कन्ध की व्याख्या ॥

रूप, वेदना, सञ्ञा, संखार, विञ्ञाण; ये पंच उपादान स्कन्ध हैं। पंच स्कन्ध और पंच उपादान स्कन्ध दोनों अलग-अलग चीज हैं।

“भिक्षुओं ! रूप स्कन्ध क्या है ? 
भिक्षुओं ! अतीत, अनागत और वर्तमान के जितने भी रूप है, अपना हो या पराया, कठोर हो या मुलायम, ऊँच हो या नीच, नजदीक हो या दूर वे सभी रूप स्कन्ध हैं।”

इसका अर्थ यह है कि किसी के मरने पर उसका रूप अतीत में चला जाता है। कोई अभी जीवित है तो उसका रूप वर्तमान में है। जिसने अभी तक जन्म नहीं लिया है तो उसका रूप भविष्य का है। अपना शरीर अध्यात्मिक रूप होता है। दूसरों का शरीर बाहरी रूप होता है। कठोर शरीर कठोर रूप होता है। मुलायम शरीर मुलायम रूप होता है। नीच योनि में जन्मा शरीर नीच रूप होता है। ऊँच योनि में जन्मा शरीर ऊँच रूप होता है। दूर का शरीर दूर रूप होता है।

नजदीक का शरीर नजदीक रूप होता है। ये अर्थ ना लेकर यदि हम कोई दूसरा अर्थ ले, तो विपस्सना चिंतन गड़बड़ा जायेगा। यहाँ उपादान की चर्चा नहीं है। केवल स्कन्ध के बारे में बताया गया है। अतीत, अनागत, वर्तमान काल में अध्यात्मिक, बाहरी, कठोर, मुलायम, नीच, ऊँच, दूर, नजदीक वाले जितने भी रूप, वेदना, सञ्ञा, संखार, विञ्ञाण हैं। उसे पंच स्कन्ध कहते हैं।

“भिक्षुओं ! रूप उपादानस्कन्ध किसे कहते हैं ?
भिक्षुओं ! विकार युक्त होते हुये, मोह-माया के जाल में फंसे रहते हुये अपने मन से चार महाभूतों से बने जिस किसी भी रूप के प्रति आसक्त हो जाता है, चाहे वो रूप भूतकाल का हो, भविष्यकाल का हो या वर्तमानकाल का हो। चाहे वो रूप अध्यात्मिक हो या बाहरी, कठोर हो या मुलायम, नीच हो या ऊँच, दूर हो या नजदीक; इसे ही रूप उपादानस्कन्ध कहते हैं।”

भगवान बुद्ध यहाँ उपादान स्कन्ध वचन का इस्तेमाल किये हैं। भगवान बुद्ध उस वचन का अर्थ बताये - विकार युक्त होते हुये, मोह-माया के जाल में फंसे रहते हुये मन से जिस किसी भी रूप के प्रति बंधित हो जाता है, चाहे वो किसी भी समय का हो, कहीं का भी हो, किसी भी जगह का हो; उन सबको रूप उपदानस्कन्ध बताये। बाकि के अन्य उपादानस्कन्धों को भी उसी प्रकार से समझ लेना चाहिये।

“भिक्षुओं ! वेदना स्कन्ध... सञ्ञा स्कन्ध… संखार स्कन्ध... विञ्ञाण स्कन्ध क्या है ? 
अतीत, अनागत, वर्तमान के जितने भी विञ्ञाण है अपना हो या पराया, कठोर हो या मुलायम, ऊँच हो या नीच, नजदीक हो या दूर, वे सभी विञ्ञाण स्कन्ध है।”

इसके ऊपर रूप के बारे में जिस तरह से शरीर को मुख्य करके समझाया गया है, उसी तरह इन स्कन्धों के बारे में भी समझना चाहिये।

“भिक्षुओं ! विञ्ञाण उपादानस्कन्ध किसे कहते हैं ?
भिक्षुओं ! विकार युक्त होते हुये, मोह-रहते हुये अपने मन से नामरूप से बनी जिस किसी भी विञ्ञाण के प्रति बंधित हो जाता है, चाहे वो विञ्ञाण भूतकाल का हो, भविष्यकाल का हो या वर्तमानकाल का हो। चाहे वो विञ्ञाण अध्यात्मिक हो या बाहरी, कठोर हो या मुलायम, नीच हो या ऊँच, दूर हो या नजदीक; इसे ही विञ्ञाण उपादानस्कन्ध कहते हैं।”
(स०नि० खन्ध सुत्त)

बुद्ध ज्ञान से बोधितले दिखा पंच उपादान स्कन्ध का दुख
भगवान बुद्ध को दुख आर्यसत्य के बारे में सत्य ज्ञान, कृत्य ज्ञान यानि दुख को परिपूर्ण रूप से बोध करना, कृत ज्ञान यानि परिपूर्ण रूप से बोध कर चुके, इन तीन प्रकार का ज्ञान उन्हे बोधिवृक्ष के नीचे वज्रासन पर बैठकर ही बोध हुआ। वहाँ पर पंच उपादान स्कन्ध को भी परिपूर्ण रूप से बोध किये, उसके बारे में उन्होंने ऐसा बताया -

“भिक्षुओं ! जब तक मैंने इस पंच उपादान स्कन्ध को चारों
प्रकार से भलीभांति समझ नहीं लिया, तब तक मैंने देवताओं सहित, मार सहित, ब्रह्म सहित, श्रमण-ब्राह्मण सहित सारे देव-मानव प्रजा के सामने यह दावा नहीं किया कि मैंने अनुत्तर सम्यक् सम्बोधि को प्राप्त कर लिया है।

भिक्षुओं ! जिस दिन मैंने इस पंच उपादान स्कन्ध को सम्पूर्ण ज्ञान से बोध कर लिया, उसी दिन यह दावा किया कि मैंने अनुत्तर सम्यक् सम्बोधि प्राप्त कर लिया है।

भिक्षुओं ! उपादानस्कन्ध के चार प्रकार क्या है ? 
भिक्षुओं! मैंने रूप को जान लिया। रूप के उत्पन्न होने के कारण को जान लिया। रूप के निरोध को जान लिया। रूप निरोध करने के मार्ग को जान लिया।

इसके साथ ही भिक्षुओं ! 
मैंने वेदना को.... सञ्ञा को... संखार का... विञ्ञाण को जान लिया। विञ्ञण के उत्पन्न होने के कारण को जान लिया। विञ्ञाण के निरोध को जान लिया। विञ्ञाण निरोध करने के मार्ग को जान लिया। 

भिक्षुओं ! यही पंच उपादानस्कन्ध के चार प्रकार है।”

॥ रूप ॥

“भिक्षुओं ! रूप क्या है ? पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु; ये चार
महाभूत तथा इन चार महाभूतों से बनी वस्तु ही रूप है।
रूप उत्पन्न होने का कारण क्या है ? कठोर या मुलायम
कबलींकार आहार (भोजन) के कारण रूप उत्पन्न होता है।
रूप का निरोध क्या है ? कठोर या मुलायम कबलींकार आहार के अंत होने से रूप का निरोध होता है अर्थात् भोजन के नहीं मिलने से रूप नष्ट हो जाता है।

रूप निरोध करने का मार्ग क्या है ? वो आर्य अष्टांगिक मार्ग
ही है। जैसे - सम्यक् दृष्टि, सम्यक् विचार, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्म, सम्यक् जीवन-यापन, सम्यक् प्रयास, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि।”
(स०नि० उपादानपरिवत्त सुत्त)

रूप कबलींकार आहार से उत्पन्न होता है, मतलब भगवान बुद्ध यहाँ बाहरी रूप के बारे में नहीं बल्कि अध्यात्मिक शरीर के बारे में ही बता रहे हैं।

॥ फेणपिण्डूपमं रूपं ॥
( फेन जैसा रूप (शरीर) है )

“भिक्षुओं ! इस गंगा नदी में फेन का ढ़ेर बहते जा रहा है। एक ज्ञानी पुरूष इस फेन की ओर देखे। देख इस पर चिंतन करे। ज्ञान से परीक्षण करे। बार-बार विचार करे। तब उसे यह फेन निस्सार, खाली, तुच्छ, व्यर्थ लगता है। उसे इसकी वास्तविकता समझ आती है। भिक्षुओं ! क्या इस फेन में कोई सार है !

भिक्षुओं ! रूप (शरीर) भी इस फेन की तरह है। अतीत,
अनागत या वर्तमान के जितने भी रूप है; अपना हो या पराया, कठोर हो या मुलायम, नीच हो या ऊँच, नजदीक हो या दूर, भिक्षु भी उन रूपों को अपने धर्म चक्षु से देखता है, ज्ञान से परीक्षण करता है, बार-बार उस पर विचार करता है। इस प्रकार धर्म चक्षु से देखने पर, ज्ञान से परीक्षण करने पर, बार-बार विचार करने पर उसे रूप निस्सार, खाली, तुच्छ, व्यर्थ लगता है। उसे इसकी वास्तविकता ही समझ में आती है। भिक्षुओं ! क्या रूप में कोई सार है !”
(स०नि० फेणपिण्डूपम सुत्त)

“भिक्षुओं ! चार महाभूत, चार महाभूतों से बने वस्तुओं को
रूप क्यों कहा जाता है ? क्योंकि भिक्षुओं ! ये रूप टूट-फूट कर बिखर जाता है, नष्ट हो जाता है। कैसे यह रूप टूट-फूट कर नष्ट हो जाता है ? ठंड से नष्ट हो जाता है। गर्मी से नष्ट हो जाता है। भूख से नष्ट हो जाता है। प्यास से नष्ट हो जाता है। मक्खी-मच्छर, हवा-धूप, सर्प आदि के प्रकोप से नष्ट हो जाता है। इस तरह टूट-फूट कर नष्ट हो जाने के कारण इसे रूप कहा जाता है।”
(स०नि० खज्जनीय सुत्त)

॥ वेदना - संवेदना ॥

“भिक्षुओं ! संवेदना छः प्रकार की होती है। 
आँख के स्पर्श से उत्पन्न होने वाली संवेदना, कान के स्पर्श से उत्पन्न होने वाली संवेदना, नाक के स्पर्श से उत्पन्न होने वाली संवेदना, जीभ के स्पर्श से उत्पन्न होने वाली संवेदना, शरीर के स्पर्श से उत्पन्न होने वाली संवेदना, मन के स्पर्श से उत्पन्न होने वाली संवेदना।

भिक्षुओं ! इस प्रकार स्पर्श के उत्पन्न होने से संवेदना उत्पन्न
होती है। स्पर्श के नष्ट होने से संवेदना नष्ट हो जाती है। संवेदना नष्ट करने का मार्ग तो आर्य अष्टांगिक मार्ग ही है। जैसे सम्यक् दृष्टि, सम्यक् विचार, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्म, सम्यक् जीवन यापन, सम्यक् प्रयास, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि ।”

संवेदना क्यों कहा जाता है ?

“भिक्षुओं ! स्पर्श से उत्पन्न होने वाली यह जो है, इसे 'संवेदना' क्यों कहा जाता है ? क्योंकि भिक्षुओं ! यह अनुभव करती है। क्या अनुभव करती है ? स्पर्श से उत्पन्न हुआ सुख अनुभव करती है। दुख अनुभव करती है। सुख-दुख रहित मध्यस्थ अनुभव करती है। इस तरह अनुभव करने के कारण इसे संवदेना या वेदना कहा जाता है।

॥ संवेदना का स्वभाव ॥

“भिक्षुओं ! शरद ऋतु में बड़े-बड़े बूंदों की वर्षा होती है। वर्षा की बूंद जल में गिरने से उसमें बड़े-बड़े बुलबुले उठते रहते हैं, फूटते रहते हैं। यह पल-पल में होते रहता है। एक व्यक्ति तेजी से उठते- फूटते इस बुलबुले को देखता है। अच्छे से परीक्षण करता है। बार-बार विचार करके देखता है। तब इस प्रकार देखने से उसे ये बुलबुले निस्सार, खाली, तुच्छ, व्यर्थ लगता है। उसे इसकी वास्तविकता ही समझ में आती है। भिक्षुओं ! क्या बुलबुलों में कोई सार होता है !

भिक्षुओं ! संवेदना उस बुलबुले की तरह है। अतीत, अनागत
या वर्तमान की जितने भी संवेदना है, अपनी हो या परायी, कठोर हो या मुलायम, ऊँच हो या नीच, नजदीक हो या दूर, भिक्षु उन सवंदेनाओं को अपने धर्म चक्षु से देखता है। ज्ञान से परीक्षण करता है। बार-बार उस पर विचार करता है। इस प्रकार धर्म चक्षु से देखने पर, ज्ञान से परीक्षण करने पर, बार-बार विचार करने पर उसे संवेदना निस्सार, खाली, तुच्छ, व्यर्थ लगता है। उसे इसकी वास्तविकता ही समझ में आती है। भिक्षुओं ! क्या संवेदना में कोई सार है !”
(स०नि० फेणपिण्डूपम सुत्त)

॥ सञ्ञा पहचान ॥

“भिक्षुओं ! सञ्ञा छः प्रकार की होती है। 
रूप की पहचान, शब्द की पहचान, गंध की पहचान, रस की पहचान, स्पर्श की पहचान और मन से विचार की पहचान । स्पर्श के उत्पन्न होने से पहचान उत्पन्न होती है। स्पर्श के निरोध होने से सञ्ञा अर्थात् पहचान का निरोध हो जाता है। पहचान निरोध करने का मार्ग तो आर्य अष्टांगिक मार्ग ही है। जैसे सम्यक् दृष्टि, सम्यक् विचार, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्म, सम्यक् जीवन यापन, सम्यक् प्रयास, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि ।”

भिक्षुओं ! स्पर्श से उत्पन्न होने वाला इसे सञ्ञा क्यों कहा जाता है ? क्योंकि भिक्षुओं ! यह पहचान करता है। क्या पहचान करता है ? नीले रंग की पहचान करता है। पीले रंग की पहचान करता है। लाल रंग की पहचान करता है। सफेद रंग की पहचान करता है। इस तरह पहचानने के कारण इसे सञ्ञा कहा जाता है। 

॥ सञ्ञा का स्वभाव ॥

“भिक्षुओं ! ग्रीष्म ऋतु के अंतिम महीने में दोपहर के समय
मृग-मरीचिका (ग्रीष्म ऋतु के समय दूर रास्ते पर पानी दिखता है, पर समीप जाने पर पानी नहीं होता; दुबारा दूरी पर पानी दिखता है) चंचलित होते रहती है। एक व्यक्ति उस चंचलित मृग-मरीचिका की ओर देखता है। अच्छे से परीक्षण करता है। बार-बार विचार करके देखता है। तब इस प्रकार देखने से उसे ये मृग मरीचिका निस्सार, खाली, तुच्छ, व्यर्थ लगता है। उसे इसकी वास्तविकता ही समझ में
आती है। भिक्षुओं ! क्या मृग-मरीचिका में कोई सार होता है !

भिक्षुओं ! सञ्ञा मृग-मरीचिका की तरह है। 
अतीत, अनागत या वर्तमान की जितने भी सञ्ञा है, अपनी हो या परायी, कठोर हो या मुलायम, ऊँच हो या नीच, नजदीक हो या दूर; भिक्षु उन सञ्ञा को अपने धर्म चक्षु से देखता है। ज्ञान से परीक्षण करता है। बार-बार उस पर विचार करता है। इस प्रकार धर्म चक्षु से देखने पर, ज्ञान से परीक्षण करने पर, बार-बार विचार करने पर उसे सञ्ञा निस्सार, खाली, तुच्छ, व्यर्थ लगती है। उसे इसकी वास्तविकता ही समझ में आती है। भिक्षुओं ! क्या सच में कोई सार है !"
(स०नि० फेणपिण्डूपम सुत्त)

॥ संखार ॥

भगवान बुद्ध ने ‘संखार' वचन के कई अर्थ बताये हैं। वे पंच
उपादानस्कन्ध के विश्लेषण में संस्कार के बारे में क्या बताये हैं ?

“भिक्षुओं ! संस्कार क्या है ? 

भिक्षुओं ! संस्कार छः प्रकार की चेतना है। 
चेतना मतलब सोच-विचार करना। रूप के प्रति चेतना, शब्द के प्रति चेतना, गंध के प्रति चेतना, रस के प्रति चेतना, स्पर्श के प्रति चेतना, विचार के प्रति चेतना ।

स्पर्श के उत्पन्न होने से संस्कार उत्पन्न होता है। स्पर्श के निरोध होने से संस्कार निरोध होता है। संस्कार निरोध का मार्ग तो आर्य अष्टांगिक मार्ग ही है। जैसे सम्यक् दृष्टि, सम्यक् विचार, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्म, सम्यक् जीवन यापन, सम्यक् प्रयास, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि।”

॥ संखार क्यों कहते हैं ? ॥

“भिक्षुओं ! स्पर्श से उत्पन्न होने वाले चेतना को संखार क्यों कहते हैं ? ‘संखत अर्थात् हेतु से उत्पन्न हुआ चीज दुबारा उसी चीज का निर्माण करता है, इसलिये संखार कहते है। 

॥ संखत क्या है? ॥

रूपं रूपत्ताय संखतं अभिसंखरोन्तीति संखारा - 
चार महाभूत से बने इस शरीर से संसार में बार-बार शरीर मिलने के लिये अपनी चेतना के द्वारा कर्म संचय करता है।

वेदना वेदनत्ताय संखतं अभिसंखरोन्तीति संखारा - 
दुनिया में सभी प्राणियों को सुख, दुख, उपेक्षा संवेदना मिलती है। संसार में उसे बार-बार पाने के लिये अपनी चेतना के द्वारा कर्म संचय करता है।

सञ्ञा सञ्ञत्ताय संखतं अभिसंखरोन्तीति संखारा - 
दुनिया में सभी प्राणियों को रूप, शब्द, गंध, रस, स्पर्श, विचार को पहचानने की क्षमता अर्थात् सञ्ञा मिलती है। संसार में उसे बार-बार पाने के लिये अपनी चेतना के द्वारा कर्म संचय करता है।

संखारे संखारत्ताय संखतं अभिसंखरोन्तीति संखारा - 
दुनिया में सभी प्राणियों को चेतना मिलती है। संसार में उसे बार-बार पाने के लिये अपनी चेतना के द्वारा कर्म संचय करता है।

विञ्ञणं विञ्ञणत्ताय संखतं अभिसंखरोन्तीति संखारा -
दुनिया में सभी प्राणियों को मन (विञ्ञाण) मिलता है। संसार में उसे बार-बार पाने के लिये अपनी चेतना के द्वारा कर्म संचय करता है।
(स०नि० खज्जनीय सुत्त)

॥ संखार का स्वभाव ॥

“भिक्षुओं ! एक व्यक्ति अच्छी लकड़ी के सार (लकड़ी का
सबसे, भीतरी हिस्सा जो कठोर एवं मजबूत होता है) की तलाश में एक तीक्ष्ण कुल्हाड़ी लेकर जंगल में जाता है। वहाँ उसे सीधा खड़ा फल रहित नये केले का पेड़ दिखता है। वह उसमें सार खोजने के लिये उस बड़े केले के पेड़ को नीचे से काट कर गिरा देता है। उसके ऊपरी भाग को भी काट डालता है। फिर एक-एक कर छिलके को अलग करता है। उसे सार तो क्या, सार के उपरी हिस्सा का एक टुकड़ा भी नहीं मिलता। तो भला उसमें सार कहाँ से मिलेगा !

वह व्यक्ति केले के तने से निकले छिलके की ओर देखता है। अच्छे से परीक्षण करता है। बार-बार विचार करके देखता है। तब इस प्रकार देखने से उसे वह केले का तना निस्सार, खाली, तुच्छ, व्यर्थ लगता है। उसे इसकी वास्तविकता ही समझ में आती है। भिक्षुओं! क्या केले के तने में सार होता है !

इसी तरह भिक्षुओं ! संखार भी बिना सार के केले के तने की तरह ही है। अतीत, अनागत या वर्तमान का जो भी संखार (चेतना) है; अपना हो या पराया, कठोर हो या मुलायम, ऊँच हो या नीच, नजदीक हो या दूर, भिक्षु भी उस संखार को अपने धर्म चक्षु से देखता है। ज्ञान से परीक्षण करता है। बार-बार उस पर विचार करता है। इस प्रकार धर्म चक्षु से देखने पर, ज्ञान से परीक्षण करने पर, बार-बार विचार करने पर उसे संखार निस्सार, खाली, तुच्छ, व्यर्थ लगता है। उसे इसकी वास्तविकता ही समझ में आती है। भिक्षुओं! क्या संखार में कोई सार है !”
(स०नि० फेणपिण्डूपम सुत्त)

॥ विञ्ञाण ॥

भगवान बुद्ध विञ्ञाण के बारे में कई गुप्त, छिपे, गहरे तथ्य
प्रकट किये हैं। सांसारिक जीवन के केन्द्रक की तरह विञ्ञाण एक विशेष चीज है। प्राणी के जन्म के लिये विञ्ञाण के द्वारा दिया गया योगदान असाधारण है। उसके बारे में एक बार उन्होंने ऐसा बताया -

“भिक्षुओं, ये जो मन (विञ्ञाण) है; वो अकेले नहीं रहता है। वो रूप के साथ रहता है। वैसा मन तृष्णा अर्थात् इच्छा नाम की पानी पाकर वृद्धि पाता है, बढ़ जाता है।

वैसे ही भिक्षुओं ये मन (विञ्ञाण) वेदना के साथ... सञ्ञा के साथ... संखार के साथ रहता है। वैसा मन तृष्णा अर्थात् इच्छा नाम की पानी पाकर वृद्धि पाता है, बढ़ जाता है।

“भिक्षुओं ! जो कोई ऐसा कहे कि मैं बिना रूप के, बिना वेदना के, बिना सञ्ञा (पहचान) के, बिना संखार के मन (विञ्ञाण) का जन्म-मृत्यु, शरीर का बढ़ना, वृद्धि होना कहता हूँ; तो ये कदापि नहीं हो सकता।”

भगवान बुद्ध जी इस प्रकार से उदाहरण देकर बताये हैं कि ये मन (विञ्ञाण) कैसे काम करता है। अच्छी बीज को अंकुरित होने के लिये मिट्टी (धरती) तथा जल की आवश्यकता होती है। जब बीज को गीली मिट्टी मिलती है, तब वह बीज अंकुरित होकर बढ़ते हुये विशाल हो जाता है। मन (विञ्ञाण) उसी बीज की तरह है।

अच्छी बीज को अंकुरित होने के लिये जैसे मिट्टी (धरती) है, उसी प्रकार मन (विञ्ञाण) को स्थापित होने के लिये रूप, वेदना, सञ्ञा, संखार है। और बीज को बढ़ने के लिये जैसे जल है, उसी प्रकार मन (विञ्ञाण) को बढ़ने के लिये ये तृष्णा है। तथा अच्छे बीज की तरह ही ये विञ्ञाण है।
(स०नि० बीज सुत्त)

॥ विञ्ञाण क्या है? ॥

“भिक्षुओं ! विञ्ञाण क्या है ? 
भिक्षुओं ! विञ्ञाण छः प्रकार का होता है। 
आँख में उत्पन्न होने वाला विञ्ञाण, कान में उत्पन्न होने वाला विञ्ञाण, नाक में उत्पन्न होने वाला विञ्ञाण, जीभ में उत्पन्न होने वाला विञ्ञाण, शरीर में उत्पन्न होने वाला विञ्ञाण, मन में उत्पन्न होने वाला विञ्ञाण । भिक्षुओं ! ये विञ्ञाण है।

नामरूप के उत्पन्न होने से विञ्ञाण उत्पन्न होता है। नामरूप के निरोध होने से विञ्ञाण निरोध हो जाता है। विञ्ञाण निरोध करने का मार्ग तो आर्य अष्टांगिक मार्ग ही है। जैसे सम्यक् दृष्टि, सम्यक् विचार, सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्म, सम्यक् जीवन यापन, सम्यक् प्रयास, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि ।”
(स०नि० उपादानपरिवत्त सुत्त)

भिक्षुओं ! विञ्ञाण क्यों कहा जाता है ?

भिक्षुओं ! क्योंकि यह विशेष रूप से जान लेता है। विशेष रूप से क्या जान लेता है ? अम्ल रस को विशेष रूप से जान लेता है। कड़वे रस को विशेष रूप से जान लेता है। कटु रस को भी विशेष रूप से जान लेता है। मधुर रस को भी विशेष रूप से जान लेता है। नमकीन रस को भी विशेष रूप से जान लेता है। नमकीन रहित रस को भी विशेष रूप से जान लेता है। इस तरह विशेष रूप से जान लेने कारण इसे विञ्ञाण कहा जाता है।”
(स०नि० खज्जनीयसुत्त)

॥ विञ्ञाण का स्वभाव ॥

“भिक्षुओं ! जादू दिखाने वाला एक जादूगर या उसका कोई
शिष्य एक चौराहे पर जादू दिखाता है। एक बुद्धिमान व्यक्ति इस जादू को देखता है। ज्ञान से परीक्षण करता है। बार-बार विचार करता है। तब उसे वह जादू निस्सार, खाली, तुच्छ, व्यर्थ के रूप में लगता है। उसे इसकी वास्तविकता ही समझ में आती है। भिक्षुओं ! क्या जादू में कोई सार होता है !

भिक्षुओं ! विञ्ञाण भी जादू की तरह है। अतीत, अनागत
या वर्तमान के जितने भी विञ्ञाण है। अपना हो या पराया, कठोर हो या मुलायम, नीच हो या ऊँच, नजदीक हो या दूर; भिक्षु भी उस विञ्ञाण को अपने धर्म चक्षु से देखता है। ज्ञान से परीक्षण करता है। बार-बार उस पर विचार करता है। इस प्रकार धर्म चक्षु से देखने पर, ज्ञान से परीक्षण करने पर, बार-बार विचार करने पर, उसे विञ्ञाण निस्सार, खाली, तुच्छ, व्यर्थ के रूप में लगता है। उसे इसकी वास्तविकता ही समझ में आती है। भिक्षुओं ! क्या विञ्ञाण में सार है !”
(स०नि० फेणपिण्डूपम सुत्त)

॥ विञ्ञाण कैसे उत्पन्न होता है? ॥

यह विञ्ञाण नाम की अद्भुत चीज आश्रव (मन की गंदगी) के साथ मिश्रण होकर दृढ़ बंधन से युक्त होकर चलते रहती है। जिससे बार-बार जन्म की तैयारी होते रहती है। दुख के बारे में सब कुछ जानने वाले भगवान बुद्ध विञ्ञाण के उत्पन्न होने के बारे में यह बताये हैं -

“भिक्षुओं ! दो के होने से विञ्ञाण उत्पन्न होता है। भिक्षुओं! दो के होने से विञ्ञण कैसे उत्पन्न होता है ? आँख और रूप के कारण आँख में विञ्ञाण उत्पन्न होता है।

भिक्षुओं ! आँख क्षण भंगुर है, बदल जाती है। अन्य स्वभाव
में परिवर्तित हो जाती है। रूप भी क्षण भंगुर है। बदल जाता है। अन्य स्वभाव में परिवर्तित हो जाता है। इस तरह आँख और रूप दोनों चंचलित होते रहते हैं, विनाश होते रहते हैं, नष्ट-भ्रष्ट होते रहते हैं, परिवर्तित होते रहते हैं।

भिक्षुओं ! जब आँख - विञ्ञाण उत्पन्न होने का जो हेतु है, जो प्रत्यय है, जो पूरक है; वह हेतु ही, वह प्रत्यय ही, वह पूरक ही क्षण भंगुर है, बदलने वाला है, परिवर्तित होने वाला है, तो भिक्षुओं! अनित्य चीज के कारण उत्पन्न हुआ आँख-विञ्ञाण भला कैसे नित्य हो सकता है !”
(स०नि० दुतियद्वय सुत्त)

यह केवल आँख में उत्पन्न हुये विञ्ञाण के लिये सीमित नहीं है। कान में उत्पन्न हुआ विञ्ञाण, नाक में उत्पन्न हुआ विञ्ञाण, जीभ में उत्पन्न हुआ विञ्ञाण, शरीर में उत्पन्न हुआ विञ्ञाण, मन में उत्पन्न हुआ विञ्ञाण भी ऐसा ही है।

विञ्ञाण नामरूप के कारण उत्पन्न होता है, ऐसा भगवान बुद्ध ने बताया है। आँख में विञ्ञाण इसलिये उत्पन्न होता है, क्योंकि वहाँ नामरूप है। कान, नाक, जीभ, शरीर, मन में भी विञ्ञण इसलिये उत्पन्न होता है, क्योंकि वहाँ नामरूप है।

॥ स्पर्श ॥

भगवान बुद्ध का बोध तो बड़ा ही अद्भुत है। अतिशय अद्भुत
है। कोई मामूली प्रज्ञा से इस स्पर्श के आर-पार देख नहीं सकता। यह सामान्य लोगों के बुद्धि से परे है। स्पर्श के बारे में उनके द्वारा बताये गये धर्म की जानकारी होना बड़ा ही उपकारी है। पंच उपादान स्कन्ध के बारे में बताये गये तथ्यों को संक्षेप में इस तरह माना जा सकता है।

रूप - चार महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु) तथा चार महाभूतों से बनी वस्तुएँ रूप कहलाती है।

वेदना - स्पर्श के कारण उत्पन्न होने वाली संवेदना वेदना
कहलाती है।

सञ्ञा - स्पर्श के कारण उत्पन्न होने वाली पहचान सञ
कहलाती है।

संखार - स्पर्श के कारण उत्पन्न होने वाली चेतना संखार
कहलाती है।

विञ्ञाण - नामरूप के कारण उत्पन्न होने वाला, विशेष रूप से जानने का स्वभाव विञ्ञाण कहलाता है।

प्राणियों के दुख के रहस्य को अपने ज्ञान से भलीभांति देखने वाले भगवान बुद्ध स्पर्श के बारे में कई बार स्पष्ट करके बताये हैं।

पंच उपादानस्कन्ध में तीन उपादानस्कन्ध की उत्पत्ति स्पर्श के कारण ही होता है। जैसे संवेदना, पहचान, चेतना; ये तीनों स्पर्श से ही उत्पन्न होता है। अर्थात् स्पर्श होने के साथ ही ये तीनों भी उत्पन्न हो जाता है।

॥ स्पर्श क्या है? ॥

“भिक्षुओं ! आँख, रूप और आँख-विञ्ञाण; इन तीनों का
संगम होना, मिलन होना, एकत्रित होना 'स्पर्श' कहलाता है।”

आँख और रूप के कारण आँख-विञ्ञण उत्पन्न होता है। इन तीनों का आपस में संगम होने से स्पर्श होता है। स्पर्श के कारण संवेदना (अनुभव) होती है। जो अनुभव किया जाता है, वही पहचाना जाता है। जो पहचाना जाता है, उस पर विचार किया जाता है। वही विकार उत्पन्न करने का कारण बन जाता है।

भगवान बुद्ध अपनी महाप्रज्ञा की महिमा से दुख का बोध किये हैं। दुख का आस्वाद, आदीनव, निस्सरण, उत्पत्ति, विनाश; ये सब कुछ सर्व सम्पूर्ण रूप से बोध किये हैं। उनके मुख से निकले हर वचनों में ज्ञान भरा है। एक बार भगवान बुद्ध बताये -

“मेरे द्वारा कहा गया है कि दुख हेतुफल धर्म से उत्पन्न हुआ है। वह किसके कारण ? स्पर्श से उत्पन्न होने के कारण।”
(स०नि० अञ्ञतित्थिय सुत्त)

इन सब में दुख आर्य सत्य का ही वर्णन है। चाहे रूप के बारे में हो या संवेदना के बारे में, सञ्ञा के बारे में हो या संखार के बारे में, विञ्ञाण के बारे में हो या स्पर्श के बारे में; ये सब कुछ दुख की ही बाते हैं। साथ ही दुख में आत्मशून्यता होता है। श्रावकों को इसे अनिवार्य रूप से समझना चाहिये।

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