फुलवा रतन कुमार संभरिया कहानी की समीक्षा तथा विशेषता

# समीक्षा एवं विशेषताएँ: रत्नकुमार सांभरिया की कहानी "फुलवा"

## कहानी का सारांश
"फुलवा" रत्नकुमार सांभरिया की प्रसिद्ध दलित कहानी है जो 1997 में 'हंस' पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। यह कहानी भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव और बदलते सामाजिक समीकरणों को उजागर करती है। कहानी में जमींदार रामेश्वर शहर आता है और अपने बेटे की नौकरी के लिए गाँव के पंडित माता प्रसाद से सिफारिश करना चाहता है। पता न होने के कारण वह अपने ही घर में काम करने वाली दलित महिला फुलवा के घर पहुँच जाता है। फुलवा अब एक समृद्ध स्थिति में है और उसका बेटा एस.पी. है। रामेश्वर जातिगत संस्कारों के कारण फुलवा के यहाँ चाय-नाश्ता नहीं करता, लेकिन बाद में पंडिताइन के समझाने पर वह अपनी मजबूरी में फुलवा के पैर पकड़ने को तैयार हो जाता है, जो जाति की सीमाओं को तोड़ने का प्रतीक है ।

## कहानी की समीक्षा

### 1. विषयवस्तु और सामाजिक संदर्भ
- **जातिगत समीकरणों का बदलता स्वरूप**: कहानी भारतीय लोकतंत्र में दलितों की बदलती सामाजिक स्थिति को दर्शाती है। यह दिखाती है कि कैसे सत्ता और पद के आगे जातिगत पूर्वाग्रहों को तोड़ा जा सकता है ।
- **रणनीतिक समायोजन**: सवर्ण समाज द्वारा दलितों के साथ जाति की मर्यादा तोड़ने का चित्रण, जो एक प्रकार का रणनीतिक समायोजन है ।
- **दलित सशक्तिकरण**: फुलवा का चरित्र दलित समाज में आए गुणात्मक बदलाव को दर्शाता है, जहाँ वह पद और प्रतिष्ठा प्राप्त कर समाज में नई पहचान बना चुकी है ।

### 2. पात्र और चरित्र-चित्रण
- **फुलवा**: कहानी की नायिका जो पहले जमींदार के घर काम करती थी, लेकिन अब एक समृद्ध स्थिति में है। उसका चरित्र दलित सशक्तिकरण का प्रतीक है ।
- **रामेश्वर**: पारंपरिक जमींदार जो जातिगत संस्कारों में लिप्त है, लेकिन परिस्थितियों के आगे झुकने को मजबूर होता है ।
- **पंडिताइन**: एक प्रगतिशील चरित्र जो जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर सोचती है और रामेश्वर को नए सामाजिक यथार्थ से परिचित कराती है ।

### 3. भाषा शैली और शिल्प
- **लोकभाषा का प्रयोग**: कहानी में ग्रामीण परिवेश को जीवंत बनाने के लिए स्थानीय बोली और मुहावरों का सटीक प्रयोग किया गया है ।
- **प्रतीकात्मकता**: "झाड़ू से छूना" और "पैर पकड़ना" जैसे प्रतीक जातिगत भेदभाव और सामाजिक बदलाव को दर्शाते हैं ।
- **यथार्थवादी शैली**: कहानीकार ने सामाजिक यथार्थ को बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत किया है, जिससे पाठक के मन में एक तीव्र आक्रोश पैदा होता है ।

## कहानी की प्रमुख विशेषताएँ

1. **दलित चेतना का प्रखर स्वर**: कहानी दलित समाज में आए बदलाव और सशक्तिकरण को एक सशक्त राजनीतिक अभिव्यक्ति देती है ।

2. **सामाजिक यथार्थ का सजीव चित्रण**: कहानी में ग्रामीण और शहरी जीवन के यथार्थ को बड़े ही प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया गया है ।

3. **मनोवैज्ञानिक गहराई**: पात्रों के आंतरिक संघर्ष, विशेषकर रामेश्वर के मानसिक द्वंद्व को बहुत ही सूक्ष्मता से चित्रित किया गया है ।

4. **आदर्श और यथार्थ का समन्वय**: कहानी में एक ओर क्रूर सामाजिक यथार्थ है तो दूसरी ओर फुलवा के उत्थान के माध्यम से आदर्श की संभावना भी दिखाई गई है ।

5. **राजनीतिक व्यंग्य**: पारंपरिक जातिवादी व्यवस्था और उसके बदलते स्वरूप पर तीखा व्यंग्य किया गया है ।

## निष्कर्ष
"फुलवा" कहानी रत्नकुमार सांभरिया के सामाजिक सरोकारों और दलित चेतना को प्रभावी ढंग से व्यक्त करती है। यह केवल एक कहानी नहीं बल्कि भारतीय समाज में हो रहे बदलावों का दस्तावेज है। कहानी की सबसे बड़ी शक्ति यह है कि यह पाठक को झकझोरती है और सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रेरित करती है। सांभरिया की यह रचना हिंदी साहित्य में दलित विमर्श की एक महत्वपूर्ण कड़ी है जो अपनी यथार्थपरक दृष्टि, मार्मिक अभिव्यक्ति और सशक्त संदेश के कारण आज भी प्रासंगिक बनी हुई है ।

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