विद्यापति मैथिल कोकिल का साहित्यिक परिचय-प्रा डॉ संघप्रकाश। दुड्डे

# विद्यापति: मैथिल कोकिल का साहित्यिक परिचय

विद्यापति भारतीय साहित्य के उन विरल कवियों में से हैं जिन्होंने मध्यकाल में भक्ति और शृंगार की अद्भुत समन्वयात्मक धारा प्रवाहित की। 14वीं-15वीं शताब्दी में रचनारत इस महाकवि को 'मैथिल कोकिल' की उपाधि से विभूषित किया गया, जो उनकी काव्य-माधुर्य का प्रतीक है। विद्यापति का साहित्यिक व्यक्तित्व बहुआयामी है - वे एक साथ शैव भक्त, राजदरबारी कवि, शृंगार रस के सिद्धहस्त चितेरे और मैथिली भाषा के प्रणेता थे।

## जीवन परिचय एवं ऐतिहासिक संदर्भ

विद्यापति का जन्म 1352 ईस्वी के आसपास बिहार के मधुबनी जिले के बिस्फी (वर्तमान विपसी) गाँव में हुआ था । उनके पिता गणपति ठाकुर और माता गंगा देवी थीं, हालाँकि कुछ स्रोतों में माता का नाम हांसिनी देवी भी उल्लिखित है । विद्यापति तिरहुत के राजा शिवसिंह और कीर्तिसिंह के आश्रित कवि थे, जिन्होंने उन्हें 'विपसी' गाँव दान में दिया और 'अभिनव जयदेव' की उपाधि से सम्मानित किया ।

उनकी शिक्षा-दीक्षा महामहोपाध्याय हरि मिश्र के मार्गदर्शन में हुई और वे संस्कृत, अवहट्ठ तथा मैथिली भाषाओं के प्रकांड पंडित बने । विद्यापति का निधन 1448 ईस्वी के आसपास हुआ माना जाता है, हालाँकि कुछ विद्वान इसे 1460 तक भी मानते हैं ।

## भाषाई योगदान एवं साहित्यिक विशेषताएँ

विद्यापति ने अपनी रचनाएँ मुख्यतः तीन भाषाओं में कीं:

1. **संस्कृत**: शैव सर्वस्व सार, गंगा वाक्यावली, दुर्गाभक्ति तरंगिणी, भू परिक्रमा, दान-वाक्यावली, पुरुष परीक्षा, विभाग सार, लिखनावली, गया पत्तलक-वर्ण कृत्य 
2. **अवहट्ठ**: कीर्तिलता और कीर्तिपताका 
3. **मैथिली**: पदावली (राधा-कृष्ण के प्रेम प्रसंगों पर आधारित) 

उनकी साहित्यिक विशेषताओं में निम्नलिखित बिंदु प्रमुख हैं:

- **भक्ति और शृंगार का अद्वितीय समन्वय**: विद्यापति मूलतः शैव थे किंतु उनकी पदावली में राधा-कृष्ण का शृंगारिक प्रेम चित्रित हुआ । आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उन्हें मुख्यतः शृंगारी कवि माना है ।
- **लौकिक और अलौकिक प्रेम का चित्रण**: उनके काव्य में मानवीय प्रेम ईश्वरीय भक्ति में रूपांतरित होता दिखाई देता है ।
- **मैथिली भाषा का परिष्कार**: विद्यापति को मैथिली का 'आदि कवि' माना जाता है। उन्होंने "देसिल बयना सब जन मिट्ठा" (देशी भाषा सभी को मीठी लगती है) कहकर लोकभाषा को गरिमा प्रदान की ।
- **अलंकारों का सुंदर प्रयोग**: उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलंकारों का कुशलतापूर्वक प्रयोग ।
- **प्रकृति चित्रण**: विशेषकर वसंत ऋतु का मनोहारी वर्णन ।

## प्रमुख कृतियाँ एवं उनका महत्व

### 1. पदावली
विद्यापति की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है जो मैथिली में रचित राधा-कृष्ण के प्रेम पर आधारित गेय पदों का संग्रह है। इसमें शृंगार रस के विविध पक्षों - संयोग और वियोग दोनों का मार्मिक चित्रण है। चैतन्य महाप्रभु इन पदों को सुनकर समाधिस्थ हो जाते थे । एक उदाहरण:
> "सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोय। सेह पिरित अनुराग बखानिय तिल-तिल नूतन होय।" 

### 2. कीर्तिलता
अवहट्ठ भाषा में रचित यह कृति भृंग-भृंगी संवाद के रूप में राजा कीर्तिसिंह की वीरता का वर्णन करती है। इसे हरप्रसाद शास्त्री ने नेपाल के राजकीय पुस्तकालय से खोज निकाला था । इसमें जौनपुर के बाजारों का जीवंत वर्णन मिलता है।

### 3. कीर्तिपताका
यह शिवसिंह की वीरता और उदारता का वर्णन करने वाला ग्रंथ है जो दोहा और छंद में रचित है। इसकी केवल खंडित प्रति उपलब्ध है ।

### 4. पुरुष परीक्षा
महाराजा शिवसिंह के निर्देश पर रचित यह संस्कृत ग्रंथ चार भागों (वीरकथा, सुबुद्धिकथा, सुविद्यकथा और पुरुषार्थकथा) में नैतिक शिक्षाप्रद कथाएँ प्रस्तुत करता है ।

### 5. भूपरिक्रमा
महाराज देवसिंह के आदेश से रचित इस ग्रंथ में नैमिषारण्य से मिथिला तक के तीर्थ स्थलों का वर्णन है। इसे विद्यापति की प्रथम रचना माना जाता है ।

## साहित्यिक प्रभाव एवं विरासत

विद्यापति का प्रभाव समस्त पूर्वी भारत के साहित्य पर पड़ा:
- बंगाल में चैतन्य महाप्रभु की परंपरा ने उनके पदों को गाया 
- असमिया, ओडिया और नेपाली साहित्य पर गहरा प्रभाव 
- मिथिला में 'विदापती नाच' नामक नृत्य शैली का विकास 
- हिंदी के वैष्णव साहित्य के प्रथम कवि के रूप में स्वीकृति 

## विद्वानों के मत

विद्यापति के साहित्यिक स्वरूप को लेकर विद्वानों में मतभेद रहे हैं:
- **शृंगारी कवि**: आचार्य रामचंद्र शुक्ल, रामकुमार वर्मा 
- **भक्त कवि**: हजारीप्रसाद द्विवेदी, श्यामसुंदर दास 
- **रहस्यवादी**: जार्ज ग्रियर्सन, नागेंद्रनाथ गुप्त 

डॉ. बच्चन सिंह ने कहा: "विद्यापति को भक्तकवि कहना उतना ही मुश्किल है जितना खजुराहो के मंदिरों को आध्यात्मिक कहना" ।

## उपाधियाँ एवं सम्मान

विद्यापति को विभिन्न उपाधियों से अलंकृत किया गया:
- मैथिल कोकिल
- अभिनव जयदेव (राजा शिवसिंह द्वारा प्रदत्त) 
- लेखन कवि
- वयः संधि के कवि (आदिकाल और भक्तिकाल के संधिकाल के कवि) 
- कवि कंठहार

## निष्कर्ष

विद्यापति भारतीय साहित्य के उन विरल रत्नों में से हैं जिनकी रचनाएँ छह शताब्दियों बाद भी जीवंत हैं। उनकी पदावली आज भी मिथिलांचल के घर-घर में गाई जाती है और संगीतज्ञों द्वारा प्रस्तुत की जाती है। भाषा, भाव और संगीत का जैसा अद्भुत संयोग विद्यापति में मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। जयदेव के गीत गोविंद और सूरदास के सूरसागर के बीच की यह कड़ी भारतीय काव्य परंपरा की अमूल्य निधि है।

> "नेपालक पार्वत्य नीड़ रटओ अथवा कामरुपक वनवीचिका, बंगालक शस्य श्यामला भूमि रहओ अथवा उतकलक नारिकेर निकुंज, विद्यापतिक स्वर सर्वत्र समान रुप सँ गुंजित होइत रहैत छनि।"  
> - डॉ. शैलेंद्र मोहन झा 

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