बीसलदेव रासो का साहित्यिक परिचय -प्रा डॉ संघप्रकाश दुड्डे

# बीसलदेव रासो: एक साहित्यिक परिचय

## मूल परिचय एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

बीसलदेव रासो हिंदी साहित्य के आदिकाल की एक प्रमुख काव्य रचना है जो वीरगाथा काल (1000-1350 ई.) की प्रतिनिधि कृतियों में से एक मानी जाती है। यह पश्चिमी राजस्थानी भाषा में रचित एक गेय काव्य है जिसके रचयिता नरपति नाल्ह हैं। इस काव्य का नायक अजमेर के चौहान वंशीय शासक विग्रहराज चतुर्थ (उपनाम बीसलदेव) है जिन्होंने 1158-1163 ई. तक शासन किया ।

## रचनाकाल एवं रचयिता

बीसलदेव रासो के रचनाकाल के संबंध में विद्वानों में मतभेद है:
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार: संवत् 1212 (1155 ई.) 
- रामकुमार वर्मा के अनुसार: संवत् 1073 
- डॉ. नगेंद्र के अनुसार: 1016 ई. 

रचयिता नरपति नाल्ह ने स्वयं को कहीं "नरपति" तो कहीं "नाल्ह" कहा है, जिससे लगता है कि नरपति उनकी उपाधि और नाल्ह उनका नाम था । कुछ विद्वान मानते हैं कि वे बीसलदेव के राजकवि थे ।

## काव्य संरचना एवं विषयवस्तु

यह काव्य चार खंडों में विभाजित है:
1. **प्रथम खंड**: मालवा के परमार राजा भोज की पुत्री राजमती से बीसलदेव के विवाह का वर्णन (85 छंद) 
2. **द्वितीय खंड**: राजमती से रूठकर बीसलदेव का उड़ीसा प्रस्थान (86 छंद) 
3. **तृतीय खंड**: राजमती का विरह वर्णन (103 छंद) 
4. **चतुर्थ खंड**: भोजराज द्वारा पुत्री को वापस ले जाना और बीसलदेव का उन्हें चित्तौड़ वापस लाना (42 छंद) 

कुल मिलाकर काव्य में 316 छंद हैं, हालांकि कुछ प्रतियों में 200 चरणों का भी उल्लेख मिलता है ।

## साहित्यिक विशेषताएँ

### रस एवं भाव
इस काव्य में **श्रृंगार रस** की प्रधानता है, जबकि वीर रस का केवल आभास मात्र मिलता है । आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, "बीसलदेव रासो ग्रंथ में श्रृंगार की ही प्रधानता है, वीर रस का किंचित् आभास मात्र है" ।

### भाषा शैली
- भाषा: पुरानी पश्चिमी राजस्थानी (साहित्यिक नहीं बल्कि लोकभाषा) 
- शैली: वर्णनात्मक (घटनात्मक नहीं) 
- विशेषता: हिंदी में प्रथम बारहमासा का वर्णन 

### ऐतिहासिकता एवं कल्पना
इस काव्य में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ कल्पना का मिश्रण है। राजा भोज और बीसलदेव के बीच लगभग 100 वर्षों का अंतर था, फिर भी विवाह का वर्णन किया गया है । डॉ. नगेंद्र के अनुसार, "सामंती जीवन के प्रति गहरी रुचि का सजीव चित्रण बीसलदेव रासो काव्य में मिलता है" ।

## साहित्यिक महत्व एवं प्रभाव

1. **वीरगीत परंपरा**: यह वीरगीत के रूप में सबसे पुरानी पुस्तक मानी जाती है ।
2. **श्रृंगार परंपरा**: डॉ. नगेंद्र के अनुसार, "बीसलदेव रासो की श्रृंगार-परंपरा का आदिकाल में ही अंत नहीं हो जाता...यह परंपरा विद्यापति से होती हुई भक्तिकाल की प्रेमाख्यान काव्यों तक पहुँची" ।
3. **संदेश परंपरा**: मेघदूत और संदेशरासक की संदेश परंपरा इस काव्य में दिखाई देती है ।

## आलोचनात्मक दृष्टिकोण

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस काव्य की आलोचना करते हुए लिखा है कि "इस छोटी-सी पुस्तक को बीसलदेव ऐसे वीर का 'रासो' कहना खटकता है" क्योंकि इसमें बीसलदेव के वीरतापूर्ण कार्यों का वर्णन नहीं मिलता । वहीं डॉ. रामकुमार वर्मा इसे "चारण काल के समय बीसलदेव वीर पूजा अथवा धर्म और राजनीति के नेता गौरव का गीत" मानते हैं ।

## निष्कर्ष

बीसलदेव रासो हिंदी साहित्य के आदिकाल की एक महत्वपूर्ण कृति है जिसमें ऐतिहासिक और पौराणिक तत्वों का अनूठा सम्मिश्रण है। यद्यपि यह एक वीर राजा के जीवन पर आधारित है, किंतु इसमें श्रृंगार रस की प्रधानता ने इसे विशिष्ट बना दिया है। डॉ. नगेंद्र के शब्दों में, "हिंदी के आदिकाल की एक श्रेष्ठ काव्य कृति" ।

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