धम्मचक्रप्रवर्तन, धर्मांतर एवं अशोक विजयादशमी -डॉ संघप्रकाश दुड्डे

धम्मचक्रप्रवर्तन, धर्मांतर एवं अशोक विजयादशमी -डॉ संघप्रकाश दुड्डे


धम्मचक्र प्रवर्तन दिवस बौद्ध धर्म में एक महत्वपूर्ण घटना है। यह दिन 14 अक्टूबर 1956 को डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा नागपुर में हजारों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इस दिन को अशोक विजयादशमी के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि सम्राट अशोक ने भी इसी दिन बौद्ध धर्म अपनाया था।

धम्मचक्र प्रवर्तन का अर्थ है धर्म का चक्र चलाना। भगवान बुद्ध ने सारनाथ में अपने पहले पांच शिष्यों को अष्टांगिक मार्ग की शिक्षा दी थी, जिसे धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है। यह बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रसार का प्रतीक है।

धम्मचक्र प्रवर्तन दिवस एक महत्वपूर्ण बौद्ध उत्सव है, जिसे हर साल 14 अक्टूबर को मनाया जाता है। इस दिन, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने 1956 में नागपुर के दीक्षाभूमि में अपने लगभग 600,000 अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया था12.

इस दिन को अशोक विजयादशमी के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि सम्राट अशोक ने भी इसी दिन बौद्ध धर्म अपनाया था1. धम्मचक्र प्रवर्तन दिवस पर, बौद्ध अनुयायी दीक्षाभूमि में एकत्रित होते हैं और इस दिन को बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाते हैं1.


सम्राट अशोक का योगदान भारतीय इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने शासनकाल में बौद्ध धर्म को व्यापक रूप से प्रचारित किया और इसे एक वैश्विक धर्म बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई12.

कलिंग युद्ध के बाद, अशोक ने अहिंसा और धर्म के मार्ग को अपनाया1. उन्होंने अपने साम्राज्य में शांति और नैतिकता की स्थापना के लिए कई सुधार किए। अशोक ने धम्म (धर्म) के सिद्धांतों का पालन करते हुए अपने शासन को नैतिकता और सहिष्णुता पर आधारित किया23.

अशोक ने धम्म महामात्र नामक अधिकारियों की नियुक्ति की, जो उनके साम्राज्य में धर्म और नैतिकता का प्रचार करते थे1. उन्होंने शिलालेखों और स्तंभों के माध्यम से अपने संदेशों को प्रसारित किया, जो आज भी भारत और अन्य देशों में देखे जा सकते हैं12.

अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा1. उनके शासनकाल में तक्षशिला, नालंदा, और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई, जो शिक्षा और संस्कृति के प्रमुख केंद्र बने1.


सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए कई प्रभावी तकनीकों का उपयोग किया:

शिलालेख और स्तंभ: अशोक ने अपने संदेशों को प्रसारित करने के लिए पूरे साम्राज्य में शिलालेख और स्तंभ स्थापित किए। इन शिलालेखों में बौद्ध धर्म के सिद्धांतों और नैतिकता के संदेश अंकित थे12.
धम्म महामात्र: अशोक ने धम्म महामात्र नामक अधिकारियों की नियुक्ति की, जो साम्राज्य में धर्म और नैतिकता का प्रचार करते थे3.
धार्मिक मिशन: अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए श्रीलंका भेजा। इसके अलावा, उन्होंने अन्य देशों में भी धार्मिक मिशन भेजे3.
सार्वजनिक कार्य: अशोक ने धर्म के प्रचार के लिए सार्वजनिक कार्यों का भी सहारा लिया, जैसे कि सड़कों, अस्पतालों, और धर्मशालाओं का निर्माण4.
धम्म नीति: अशोक ने धम्म नीति को अपनाया, जिसमें अहिंसा, सत्य, और करुणा जैसे सिद्धांत शामिल थे। उन्होंने अपने शासन में इन सिद्धांतों को लागू किया और लोगों को इन्हें अपनाने के लिए प्रेरित किया5.
इन तकनीकों के माध्यम से अशोक ने बौद्ध धर्म को व्यापक रूप से फैलाया और इसे एक वैश्विक धर्म बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


सम्राट अशोक का बौद्ध धर्म के प्रसार में योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण था। उनके शासनकाल में बौद्ध धर्म को व्यापक रूप से फैलाने के लिए कई प्रभावी कदम उठाए गए:

कलिंग युद्ध के बाद परिवर्तन: कलिंग युद्ध की विभीषिका ने अशोक को गहराई से प्रभावित किया। इस युद्ध के बाद, उन्होंने अहिंसा और बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को अपनाया1.
धम्म महामात्र की नियुक्ति: अशोक ने धम्म महामात्र नामक अधिकारियों की नियुक्ति की, जो साम्राज्य में धर्म और नैतिकता का प्रचार करते थे2.
शिलालेख और स्तंभ: अशोक ने अपने संदेशों को प्रसारित करने के लिए पूरे साम्राज्य में शिलालेख और स्तंभ स्थापित किए। इन शिलालेखों में बौद्ध धर्म के सिद्धांतों और नैतिकता के संदेश अंकित थे3.
धार्मिक मिशन: अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए श्रीलंका भेजा। इसके अलावा, उन्होंने अन्य देशों में भी धार्मिक मिशन भेजे4.
सार्वजनिक कार्य: अशोक ने धर्म के प्रचार के लिए सार्वजनिक कार्यों का भी सहारा लिया, जैसे कि सड़कों, अस्पतालों, और धर्मशालाओं का निर्माण5.
धम्म नीति: अशोक ने धम्म नीति को अपनाया, जिसमें अहिंसा, सत्य, और करुणा जैसे सिद्धांत शामिल थे। उन्होंने अपने शासन में इन सिद्धांतों को लागू किया और लोगों को इन्हें अपनाने के लिए प्रेरित किया5.
इन तकनीकों के माध्यम से अशोक ने बौद्ध धर्म को व्यापक रूप से फैलाया और इसे एक वैश्विक धर्म बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


सम्राट अशोक का जीवन कई महत्वपूर्ण घटनाओं और उपलब्धियों से भरा हुआ है। यहाँ उनके जीवन के कुछ प्रमुख हिस्से हैं:

प्रारंभिक जीवन: अशोक का जन्म 304 ईसा पूर्व में पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) में हुआ था। वे मौर्य साम्राज्य के सम्राट बिंदुसार और रानी धर्मा के पुत्र थे1.
राज्याभिषेक: अशोक का राज्याभिषेक 272 ईसा पूर्व में हुआ था। उन्होंने अपने शासनकाल में मौर्य साम्राज्य को और भी विस्तारित किया1.
कलिंग युद्ध: 261 ईसा पूर्व में हुए कलिंग युद्ध ने अशोक के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ लाया। इस युद्ध की विभीषिका ने उन्हें गहराई से प्रभावित किया और उन्होंने अहिंसा और बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को अपनाया2.
धम्म नीति: कलिंग युद्ध के बाद, अशोक ने धम्म नीति को अपनाया, जिसमें अहिंसा, सत्य, और करुणा जैसे सिद्धांत शामिल थे। उन्होंने अपने शासन में इन सिद्धांतों को लागू किया और लोगों को इन्हें अपनाने के लिए प्रेरित किया3.
धार्मिक मिशन: अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा। इसके अलावा, उन्होंने अन्य देशों में भी धार्मिक मिशन भेजे4.
शिलालेख और स्तंभ: अशोक ने अपने संदेशों को प्रसारित करने के लिए पूरे साम्राज्य में शिलालेख और स्तंभ स्थापित किए। इन शिलालेखों में बौद्ध धर्म के सिद्धांतों और नैतिकता के संदेश अंकित थे5.
सार्वजनिक कार्य: अशोक ने धर्म के प्रचार के लिए सार्वजनिक कार्यों का भी सहारा लिया, जैसे कि सड़कों, अस्पतालों, और धर्मशालाओं का निर्माण5.
सम्राट अशोक का जीवन न केवल उनके शासनकाल के लिए बल्कि उनके द्वारा अपनाए गए नैतिक और धार्मिक सिद्धांतों के लिए भी महत्वपूर्ण है।


सम्राट अशोक के पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा का बौद्ध धर्म के प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान था।

महेंद्र: महेंद्र अशोक के सबसे बड़े पुत्र थे। उन्हें बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए श्रीलंका भेजा गया था। महेंद्र ने श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया और वहां के राजा देवानामपिय तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया1.
संघमित्रा: संघमित्रा अशोक की पुत्री थीं। उन्हें भी महेंद्र के साथ श्रीलंका भेजा गया था। संघमित्रा ने श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और वहां के लोगों को बौद्ध धर्म की शिक्षा दी2.
महेंद्र और संघमित्रा दोनों ने मिलकर श्रीलंका में बौद्ध धर्म को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके प्रयासों के कारण ही बौद्ध धर्म श्रीलंका में व्यापक रूप से फैल सका।

सम्राट अशोक का परिवार काफी बड़ा और विविध था। उनके परिवार के प्रमुख सदस्य निम्नलिखित थे:

माता-पिता:
पिता: बिंदुसार, जो मौर्य साम्राज्य के दूसरे सम्राट थे।
माता: सुभद्रांगी (उत्तरी परंपरा के अनुसार) या रानी धर्मा (दक्षिणी परंपरा के अनुसार)।
पत्नी:
देवी (वेदिसा): उज्जयिनी की राजकुमारी।
असंधिमित्रा: अग्रमहिषी।
कारुवाकी: तीवर की माता।
पद्मावती: कुणाल की माता।
तिष्यरक्षिता: एक अन्य पत्नी।
संतान:
महेंद्र: बौद्ध धर्म के प्रचारक, जिन्हें श्रीलंका भेजा गया था।
संघमित्रा: महेंद्र की बहन, जिन्होंने भी श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया।
कुणाल: पद्मावती के पुत्र।
तीवर: कारुवाकी के पुत्र।
चारुमती: एक अन्य पुत्री।
भाई-बहन:
सुमन: सबसे बड़े भाई।
तिष्य: छोटे सहोदर भाई।
विगताशोक (वीताशोक): एक अन्य भाई।
अशोक के परिवार के ये सदस्य उनके जीवन और शासनकाल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे12.

सम्राट अशोक की कई पत्नियाँ थीं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं:

देवी (वेदिसा): देवी उज्जयिनी की राजकुमारी थीं और अशोक की पहली पत्नी थीं। उनके पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा थे, जिन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई1.
असंधिमित्रा: असंधिमित्रा अशोक की अग्रमहिषी (मुख्य रानी) थीं। उनके बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन वे अशोक के शासनकाल में महत्वपूर्ण स्थान रखती थीं2.
कारुवाकी: कारुवाकी अशोक की दूसरी पत्नी थीं और उनके पुत्र तीवर की माता थीं। कारुवाकी का नाम अशोक के शिलालेखों में भी मिलता है3.
पद्मावती: पद्मावती अशोक की एक अन्य पत्नी थीं और उनके पुत्र कुणाल की माता थीं4.
तिष्यरक्षिता: तिष्यरक्षिता अशोक की एक और पत्नी थीं। उनके बारे में भी बहुत कम जानकारी उपलब्ध है, लेकिन वे अशोक के जीवन में महत्वपूर्ण थीं5.
अशोक की पत्नियों ने उनके जीवन और शासनकाल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

प्रिया उपासक तथा उपासिकाओं को सप्रेम जय भीम  प्यारे भाइयों आज हम धम्म चक्र प्रवर्तन दिन का विशेष महत्व क्या है और इस महत्व के उपलक्ष में हमें क्या करना चाहिए आज हम देख रहे हैं की धम्म दीक्षा होने के पश्चात आज की  गति स्थिति और आगे आने वाले बदलाव  के बारे में हमें सोचना बहुत ही आवश्यक है आज हम देख पा रहे हैं कि जिस अवस्था से हम गुजर रहे हैं यह आधुनिक काल का  कहा जाएगा बहुत सारे लोगों ने इस संदर्भ में विचार किया है प्रति क्रांति होती रही है और उसका जवाब देना भी हमें बहुत ही आवश्यक है प्रति क्रांति के उसे पर जाकर हमें एक नया क्रांतिकारी युग बनाने के लिए क्रांतिकारी विचारधारा की एक मशाल आगे बढ़ाने के लिए हमें तत्पर रहना चाहिए, हम प्रगतिशील विचार के उत्तराधिकारी हैं, वाहक हैं और इसलिए हमें कुछ अनजाने गलतियों पर पुनर्विचार करना ही चाहिए।भ. बुद्ध को संबोधि प्राप्त होने के बाद सबसे अधिक सारनाथ में सबसे पहले उन्होंने पाँच भिक्षुओं को धम्म की परिभाषा समझायी।धम्म के सिद्धांतों को बताने में चार सत्य हैं आर्यअष्टांगिक मार्ग, प्रतित्यसमुत्पाद, कार्यकारणभाव,अनित्यता तथा अनात्मा के सिद्धान्तों की व्याख्या की गई। एक धम्म का सबसे पहले सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है, अर्थात् इस दिन पहली बार धम्म चक्र घूमने के कारण इसे "धम्मचक्रप्रवर्तन दिवस" ​​कहा जाता है। उस दिन आषाढ़  यह पूर्णिमा है और भ. बुद्ध जैसे गुरु इस पूर्णिमा पर पहली बार शिष्यों को सम्पूर्ण ज्ञान दे रहे हैं "गुरु"।पूर्णिमा" कहा जाने लगा। बौद्ध राष्ट्रों मेंसाथ ही इस आषाढ़ पूर्णिमा को धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस के रूप में भी मनाया जाता है  यह पूर्णिमा बौद्धोत्तर काल की भी है यह बौद्ध संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया। वह हैजब बुद्ध जैसे महान व्यक्ति ने पहली बार धम्म के बारे में सोचाजब प्रस्तुत किया जाता है तो वह "धम्मचक्रप्रवर्तन" होता है! यहाँ पाँच हैं भिक्खुओं के बाद, कई लोग बुद्ध के धम्म की ओर आकर्षित हुए जब ऐसा हुआ, तो बुद्ध ने उसे "धम्मदीक्षा" दी। यह नौसिखियाजब बुद्ध ने भिक्षुओं को धम्म दीक्षा  दी यदि यह "धम्मचक्रप्रवर्तन" नहीं था, तो यह "धम्मदेसन' था! भ.बुद्ध के पैंतालीस वर्षों के दौरान धम्म का प्रचार और प्रसार करते हुए,
उन्होंने हजारों लोगों को धम्म की दीक्षा दी और भिक्खु-भिक्खुनी संघ का विकास हुआ। आज भी यह परंपरा जारी है और दुनिया भर में लोग बौद्ध धर्म की दीक्षा ले रहे हैं। इसका मतलब वही है. जब बुद्ध ने पहली बार धम्म के बारे में बात की, तो वह "धम्मचक्रप्रवर्तन" था। जिन लोगों ने बौद्ध धम्म स्वीकार कर लिया, उनके बारे में कहा जाने लगा कि उन्होंने "धम्मदीक्षा ले ली है"।

ईसा पश्चात तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व सम्राट अशोक का उदय काल है! एक साम्राज्य विरासत में पाकर महत्वाकांक्षी राजा अशोक ने कई राज्यों पर विजय प्राप्त की और अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया। बुद्ध के विचारों से प्रेरित होकर यह सम्राट बौद्ध धम्म को स्वीकार करता है। लगातार दस दिनों तक चलने वाले इस विजय उत्सव को प्राचीन भारत में "अशोक विजयादशमी" के नाम से जाना जाता था। यह तलवार पर मानवतावादी विचार वाले बौद्ध धर्म की जीत थी! सम्राट अशोक के शासनकाल के दौरान और उसके बाद भी अंतिम मौर्य राजा बृहद्रथ तक यह दिन "अशोक विजयादशमी" के रूप में मनाया जाता था। बौद्ध विचार को सभी दिशाओं में फैलाने के लिए सम्राट अशोक ने धम्म प्रचारकों को अलग-अलग दिशाओं में भेजा। स्तंभ के शीर्ष पर चारों दिशाओं की ओर पीठ किए हुए शेरों की मूर्ति, सम्राट अशोक के धम्म प्रचार का प्रतीक थी। इस कारण से यह उनका शाही प्रतीक था! बाद में, बृहद्रथ मौर्य की उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने धोखे से हत्या कर दी और बौद्ध धम्म के नेतृत्व वाले राज्य की जगह वैदिक परंपरा के कट्टर समर्थक शुंग ने ले ली।
आया पुष्यमित्र शुंग ने बौद्ध धम्म के विचार को नष्ट करने के लिए, बौद्ध भिक्षुओं को मारने के लिए, जो इसके प्रचारक थे, प्रत्येक भिक्खु की हत्या के लिए एक सौ स्वर्ण कार्षापण (सिक्का) के इनाम की घोषणा की। राज्य में हजारों भिक्षुओं का कत्लेआम सोने की लूट के समान था! परन्तु फिर भी बौद्ध धर्म पूर्णतः नष्ट नहीं हो सका। छठी शताब्दी ईसा पूर्व से ई.पू. तक दसवीं शताब्दी तक यह भारत के अन्य राज्यों तथा विदेशों में फैलता रहा। ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से बौद्ध धर्म का पतन शुरू हो गया। वैदिक परंपरा से उत्पन्न हिंदू धर्म ने बौद्ध धर्म को ख़त्म करने की पूरी कोशिश की। इसके एक भाग के रूप में, बौद्ध संस्कृति में महत्वपूर्ण दिनों, त्योहारों और उत्सवों को नाम दिया जाने लगा और उन्हें एक नया अर्थ दिया गया। सम्राट अशोक द्वारा शुरू की गई "अशोक विजयादशमी" का नाम बदलकर विजयादशमी या दशहरा या दशहरा कर दिया गया। इस पर्व पर दस मुंह वाले रावण को मारने की प्रथा शुरू हुई। मूलतः यह एक प्रतीक है. सम्राट अशोक से लेकर बृहद्रथ तक दस मौर्य राजा थे और वे सभी बौद्ध धम्म के अनुयायी थे। इस प्रतीक का प्रयोग इसलिए किया गया क्योंकि इनके नष्ट होने से बौद्ध धम्म का पतन हुआ। अथवा इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि यह बुद्ध विचार को नष्ट कर (दशबल के साथ) हर्षोल्लास का उत्सव मनाने का प्रतीक भी हो सकता है।
1956 में जब डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर बौद्ध  धम्म की शुरुआत हुई तो सबसे पहले इसकी घोषणा लोगों को की गयीअपील करते हुए प्रबुद्ध भारत  23 सितम्बर
1956 के अंक में, बाबासाहेब लिखते हैं, "मैंने अब बौद्ध धर्म में अपने रूपांतरण के लिए दिन और स्थान तय कर लिया है। मैं 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में बौद्ध धर्म अपनाऊंगा। इस दिन, मेरा धर्म-दीक्षा समारोह सुबह 9 बजे से होगा।" सुबह 11 बजे और शाम को मेरा सभी लोगों के लिए एक सार्वजनिक व्याख्यान होगा।" इस समय जारी किए गए अपील पत्र में, भारतीय बौद्धजन समिति, नागपुर शाखा के सचिव, वामन गोडबोले ने "सामुदायिक रूपांतरण" शीर्षक के तहत लिखा है, "भारतीय बौद्धजन समिति के संस्थापक और अध्यक्ष, परम पूज्य डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर का बौद्ध धर्म में रूपांतरण" 14 अक्टूबर 1956 को रविवार को सुबह 8 बजे नागपुर में श्रद्धेय बर्मी भिक्षु चंद्रमणि महास्थविर के हाथों विजयादशमी मनाई जाएगी। इसका मतलब यह है कि बाबासाहेब ने स्वयं इस घटना को "धर्मांतरण" कहा था या गोडबोले ने इस घटना को "बौद्ध धर्म परिवर्तन" कहा था। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि ये दोनों ही इस घटना को "धम्मचक्रप्रवर्तन" नहीं कहते क्योंकि यह इस ऐतिहासिक घटना के लिए सही शब्द नहीं है!
तो 1956 में धम्म चक्र प्रवर्तन शब्द कहाँ से आया?
29 सितम्बर, 1956 को प्रबुद्ध भारत के पहले अंक में
पन्ने पर छपा था, ''आओ चलें धर्मचक्र के नवनिर्माण के लिएनागपुर! डॉ। बाबासाहेब का बौद्ध दीक्षा समारोह,
विजयादशमी, 14 अक्टूबर सुप्रभात।'' लेकिन यह ज्ञानवर्धक हैहिन्दुस्तान के 4 अगस्त 1956 अंक में एक समाचार प्रकाशित हुआ था किया गया था और वह है, “भारतीय बौद्धजन समिति नागपुर शाखा के धम्मचक्कपवत्तन दिवस के अवसर पर प्रोफेसर किलेदार ने आषाढ़ी पूर्णिमा पर उत्कृष्ट व्याख्यान दिया....संपादक'' अर्थात प्रबुद्ध भारत के संपादकों को पता था कि धम्मचक्कप्रवर्तन दिवस कब है! बाबासाहेब अम्बेडकर ने 14 अक्टूबर को अशोक विजयादशमी की तारीख के रूप में चुना यानी अक्टूबर 1956 के महीने में दशहरा इसी तारीख को पड़ा था। लोग बाबा साहब को इस दिन के मूल नाम और उद्देश्य की ओर वापस ले जाना चाहते थे। बाबासाहब वही काम करना चाहते थे जो सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को पूरे राज्य और दुनिया भर में फैलाने के लिए किया था। उन्होंने सम्राट अशोक की मुहर को भारत की राज्य मुहर के रूप में चुना, भारत के राष्ट्रीय ध्वज में अशोक चक्र अंकित है, इसे राष्ट्रपति की शपथ का एकमात्र गवाह माना जाता है, और उनकी सीट की दीवार के पीछे धम्मचक्रप्रवर्तनै का आदर्श वाक्य लिखा हुआ है। हमें बाबा साहेब के इस मूल उद्देश्य और उनके कार्यों से सीख लेनी चाहिए।

इसीलिए अशोक विजयादशमी, चाहे जो भी तिथि हो, (इस वर्ष यह 12 अक्टूबर है) हमें इस दिन को धर्म चक्रप्रवर्तन दिवस न कहकर "धर्मांतरण दिवस" ​​​​या "धम्मदीक्षा दिवस" ​​​​या "धम्म स्वीकृति दिवस" ​​​​के रूप में मनाना चाहिए। इसका मतलब है कि "अशोक विजयादशमी और धम्मदीक्षा (रूपांतरण) दिवस की शुभकामनाएं" हमारे सभी संचार में आनी चाहिए! क्योंकि यही वो दिन है
"सौभाग्य" वाक्यांश प्रकट होना चाहिए क्योंकि यह दिन बाबासाहेब के लिए बौद्ध धर्म को बढ़ावा देने के लिए था!

यह दिन न केवल सम्राट अशोक के कार्यों के प्रति श्रद्धांजलि है, बल्कि बाबासाहेब की दूरदर्शिता का प्रतीक है और एक ऐसा दिन है जो हमें लगातार हमारे लक्ष्यों की याद दिलाता है। |

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