फुलवा कहानी समीक्षा
रत्नकुमार सांभरिया की कहानी ‘फुलवा’ ऐसी ही कहानी है, जो नब्बे के बाद के भारतीय लोकतंत्र में दलितों की बदलती हुई स्थिति और उससे तालमेल न बिठा पाने वाली प्रतिगामी सवर्ण मानसिकता को अभिव्यक्त करती है। किसी समय गाँव में जमींदार की टहलुआई करने वाली फुलवा का बेटा पढ़-लिख कर एस.पी. बन जाता है और फुलवा अपने बेटे-बहू के साथ शहर के भव्य सरकारी मकान में रहने लगती है। गाँव के जमींदार का लड़का रामेश्वर अपने बेपढ़े-लिखे बेटे को नौकरी में लगवाने के लिए सिफारिश करने शहर आता है। पंडित माताप्रसाद का मकान ढूंढ पाने में असफल रामेश्वर फुलवा के घर चला जाता है। गाँव की दलित फुलवा जो उसकी हवेली में बेगार खटती थी, यहाँ रानी की तरह रहती है! फुलवा की हैसियत देखकर रामेश्वर जल-भुन जाता है। जातिवादी संस्कारों से बंधा रामेश्वर भूखा होने पर भी फुलवा के घर पानी तक नहीं पीता।
जाति के झूठे अभिमान से भरा रामेश्वर सिंह फुलवा के आतिथ्य और सत्कार को तो ठुकरा देता है, लेकिन अंततः बदली हुई परिस्थिति और अपनी गरज के आगे लाचार वह फुलवा के पास मदद के लिए जाने को मजबूर हो जाता है। रत्नकुमार सांभरिया की यह कहानी दलितों की बदलती सामाजिक स्थिति के साथ-साथ जातिवादी समाज के बदलते रवैये को पाठकों के सामने रखती है। जातिवादी समाज के रवैये में परिवर्तन कुछ तो स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में घटित होता है और ज़्यादातर लाभ और गरज के दबाव में। कहानी में पंडित माताप्रसाद की विधवा और फुलवा का परस्पर व्यवहार और संबंध स्वाभाविक तौर पर जाति की सीमा को तोड़ता है, जबकि रामेश्वर अपनी गरज से जाति की मर्यादा तोड़ने पर मजबूर होता है। यह कहानी गाँव और शहर में जातिवाद के बदलते समीकरण को भी प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करती है।
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