महाबोधी महाविहार बिहार सम्बोधि स्थान -डॉ संघप्रकाश दुड्डे
बोधगया
बोधगया, बिहार का एक प्रमुख धार्मिक स्थल है जहां गौतम बुद्ध ने अपने बोध की प्राप्ति की थी। यह स्थान बौद्ध धर्म के लिए पवित्र माना जाता है और यहां के महाबोधि मंदिर ने एक महत्वपूर्ण धार्मिक और पर्यटन स्थल के रूप में पहचान प्राप्त की है। यह स्थान बौद्ध यात्रा का महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और भूतपूर्व में मागध नामक राज्य की राजधानी था।[1]
बोधगया Bodh Gaya | |
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![]() महाबोधि मंदिर | |
ज़िला | गया ज़िला |
प्रान्त | बिहार |
देश | ![]() |
जनसंख्या (2011) | |
• कुल | 38,439 |
भाषा | |
• प्रचलित | हिन्दी, मगही |
बोधगया (Bodh Gaya) बिहार राज्य के गया ज़िले में स्थित एक नगर है, जिसका गहरा ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व है। यहाँ भगवान बुद्ध को बोधि वृक्ष के तले ज्ञान प्राप्त हुआ था। बोध गया में प्रति वर्ष प्रबुद्ध सोसाइटी द्बारा ज्ञान एवं सम्मान समारोह किया जाता है ! बोधगया राष्ट्रीय राजमार्ग 83 पर स्थित है।[2][3]
यहाँ, 2500 साल पहले, युवा राजकुमार सिद्धार्थ गौतम को बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था, जिससे उन्हें बुद्ध कहा जाने लगा।
महाबोधि मन्दिर

बिहार में इसे मंदिरों के शहर के नाम से जाना जाता है। इस गांव के लोगों की किस्मत उस दिन बदल गई जिस दिन एक राजकुमार ने सत्य की खोज के लिए अपने राजसिहासन को ठुकरा दिया। बुद्ध के ज्ञान की यह भूमि आज बौद्धों के सबसे बड़े तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध है। आज विश्व के हर धर्म के लोग यहां घूमने आते हैं। पक्षियों की चहचहाट के बीच बुद्धम्-शरनम्-गच्छामि की हल्की ध्वनि अनोखी शांति प्रदान करती है। यहां का सबसे प्रसिद्ध मंदिर महाबोधि मंदिर है। विभिन्न धर्म तथा सम्प्रदाय के व्यक्ित इस मंदिर में आध्यात्मिक शांति की तलाश में आते हैं। इस मंदिर को यूनेस्को ने २००२ में वर्ल्ड हेरिटेज साइट घोषित किया था। बुद्ध के ज्ञान प्रप्ति के २५० साल बाद राजा अशोक बोध्गया गए। माना जाता है कि उन्होंने महाबोधि मन्दिर का निर्माण कराया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पह्ली शताब्दी में इस मन्दिर का निर्माण कराया गया या उस्की मरम्मत कराई गई। हिन्दुस्तान में बौद्ध धर्म के पतन के साथ साथ इस मन्दिर को लोग भूल गए थे और ये मन्दिर धूल और मिट्टी में दब गया था। १९वीं सदी में अलेक्जेंडर कनिंघम ने इस मन्दिर की मरम्मत कराई। १८८३ में उन्होंने इस जगह की खुदाई की और काफी मरम्मत के बाद बोधगया को अपने पुराने शानदार अवस्था में लाया गया।
मुख्य आकर्षण
बोध-गया घूमने के लिए दो दिन का समय पर्याप्त है। अगर आप एक रात वहां रूकते हैं तो एक दिन का समय भी प्रर्याप्त है। बोध-गया के पास ही एक शहर है गया। यहां भी कुछ पवित्र मंदिर हैं जिसे जरुर देखना चाहिए। इन दोनों गया को देखने के लिए कम से कम एक-एक दिन का समय देना चाहिए। एक अतिरिक्त एक दिन नालन्दा और राजगीर को देखने के लिए रखना चाहिए। बोधगया घूमने का सबसे बढिया समय बुद्ध जयंती (अप्रैल-मई) है जिसे राजकुमार सिद्धार्थ के जंमदिवस के रूप में मनाया जाता है। इस समय यहां होटलों में कमरा मिलना काफी मुश्किल होता है। इस दौरान महाबोधि मंदिर को हजारों कैंडिलों की सहायता से सजाया जाता है। यह दृश्य देखना अपने आप में अनोखा अनुभव होता है। इस दृश्य की यादें आपके जेहन में हमेशा बसी रहती है। बोधगया में ही मगध विश्वविद्यालय का कैंपस है। इसके नजदीक एक सैनिक छावनी है तथा करीब सात किलोमीटर दूर अन्तरराष्ट्रीय एयरपोर्ट है जहाँ से थाईलैंड, श्रीलंका बर्मा इत्यादि के लिए नियमित साप्ताहिक उड़ानें उपलब्ध हैं।
महाबोधि-महावीर-मंदिर समूह
महाबोधि मंदिर

यह मंदिर मुख्य मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तूप के समान हे। इस मंदिर में बुद्ध की एक बहुत बड़ी मूर्त्ति स्थापित है। यह मूर्त्ति पदमासन की मुद्रा में है। यहां यह अनुश्रुति प्रचिलत है कि यह मूर्त्ति उसी जगह स्थापित है जहां बुद्ध को ज्ञान निर्वाण (ज्ञान) प्राप्त हुआ था। मंदिर के चारों ओर पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग बनी हुई है। ये रेलिंग ही बोधगया में प्राप्त सबसे पुराना अवशेष है। इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व दिशा में प्राकृतिक दृश्यों से समृद्ध एक पार्क है जहां बौद्ध भिक्षु ध्यान साधना करते हैं। आम लोग इस पार्क में मंदिर प्रशासन की अनुमति लेकर ही प्रवेश कर सकते हैं।
इस मंदिर परिसर में उन सात स्थानों को भी चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद सात सप्ताह व्यतीत किया था। जातक कथाओं में उल्लेखित बोधि वृक्ष भी यहां है। यह एक विशाल पीपल का वृक्ष है जो मुख्य मंदिर के पीछे स्थित है। कहा जाता बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। वर्तमान में जो बोधि वृक्ष वह उस बोधि वृक्ष की पांचवीं पीढी है। मंदिर समूह में सुबह के समय घण्टों की आवाज मन को एक अजीब सी शांति प्रदान करती है।
मुख्य मंदिर के पीछे बुद्ध की लाल बलुए पत्थर की 7 फीट ऊंची एक मूर्त्ति है। यह मूर्त्ति विजरासन मुद्रा में है। इस मूर्त्ति के चारों ओर विभिन्न रंगों के पताके लगे हुए हैं जो इस मूर्त्ति को एक विशिष्ट आकर्षण प्रदान करते हैं। कहा जाता है कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इसी स्थान पर सम्राट अशोक ने हीरों से बना राजसिहांसन लगवाया था और इसे पृथ्वी का नाभि केंद्र कहा था। इस मूर्त्ति की आगे भूरे बलुए पत्थर पर बुद्ध के विशाल पदचिन्ह बने हुए हैं। बुद्ध के इन पदचिन्हों को धर्मचक्र प्रर्वतन का प्रतीक माना जाता है।
बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद दूसरा सप्ताह इसी बोधि वृक्ष के आगे खड़ा अवस्था में बिताया था। यहां पर बुद्ध की इस अवस्था में एक मूर्त्ति बनी हुई है। इस मूर्त्ति को अनिमेश लोचन कहा जाता है। मुख्य मंदिर के उत्तर पूर्व में अनिमेश लोचन चैत्य बना हुआ है।
मुख्य मंदिर का उत्तरी भाग चंकामाना नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद तीसरा सप्ताह व्यतीत किया था। अब यहां पर काले पत्थर का कमल का फूल बना हुआ है जो बुद्ध का प्रतीक माना जाता है।
महाबोधि मंदिर के पश्चिमोत्तर भाग में एक छतविहीन भग्नावशेष है जो रत्नाघारा के नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद चौथा सप्ताह व्यतीत किया था। दन्तकथाओं के अनुसार बुद्ध यहां गहन ध्यान में लीन थे कि उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली। प्रकाश की इन्हीं रंगों का उपयोग विभिन्न देशों द्वारा यहां लगे अपने पताके में किया है।
माना जाता है कि बुद्ध ने मुख्य मंदिर के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर पर स्थित अजपाला-निग्रोधा वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ित के बाद पांचवा सप्ताह व्यतीत किया था। बुद्ध ने छठा सप्ताह महाबोधि मंदिर के दायीं ओर स्थित मूचालिंडा क्षील के नजदीक व्यतीत किया था। यह क्षील चारों तरफ से वृक्षों से घिरा हुआ है। इस क्षील के मध्य में बुद्ध की मूर्त्ति स्थापित है। इस मूर्त्ति में एक विशाल सांप बुद्ध की रक्षा कर रहा है। इस मूर्त्ति के संबंध में एक दंतकथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार बुद्ध प्रार्थना में इतने तल्लीन थे कि उन्हें आंधी आने का ध्यान नहीं रहा। बुद्ध जब मूसलाधार बारिश में फंस गए तो सांपों का राजा मूचालिंडा अपने निवास से बाहर आया और बुद्ध की रक्षा की।
इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व में राजयातना वृक्ष है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ित के बाद अपना सांतवा सप्ताह इसी वृक्ष के नीचे व्यतीत किया था। यहीं बुद्ध दो बर्मी (बर्मा का निवासी) व्यापारियों से मिले थे। इन व्यापारियों ने बुद्ध से आश्रय की प्रार्थना की। इन प्रार्थना के रूप में बुद्धमं शरणम गच्छामि (मैं अपने को भगवान बुद्ध को सौंपता हू) का उच्चारण किया
आसपास के दर्शनीय स्थल
राजगीर
बोधगया आने वालों को राजगीर भी जरुर घूमना चाहिए। यहां का विश्व शांति स्तूप देखने में काफी आकर्षक है। यह स्तूप ग्रीधरकूट पहाड़ी पर बना हुआ है। इस पर जाने के लिए रोपवे बना हुआ। इसका शुल्क 80 रु. है। इसे आप सुबह 8 बजे से दोपहर 1 बजे तक देख सकते हैं। इसके बाद इसे दोपहर 2 बजे से शाम 5 बजे तक देखा जा सकता है।
शांति स्तूप के निकट ही वेणु वन है। कहा जाता है कि बुद्ध एक बार यहां आए थे।
राजगीर में ही प्रसद्धि सप्तपर्णी गुफा है जहां बुद्ध के निर्वाण के बाद पहला बौद्ध सम्मेलन का आयोजन किया गया था। यह गुफा राजगीर बस पड़ाव से दक्षिण में गर्म जल के कुंड से 1000 सीढियों की चढाई पर है। बस पड़ाव से यहां तक जाने का एक मात्र साधन घोड़ागाड़ी है जिसे यहां टमटम कहा जाता है। टमटम से आधे दिन घूमने का शुल्क 100 रु. से लेकर 300 रु. तक है। इन सबके अलावा राजगीर में जरासंध का अखाड़ा, स्वर्णभंडार (दोनों स्थल महाभारत काल से संबंधित है) तथा विरायतन भी घूमने लायक जगह है। घूमने का सबसे अच्छा समय: ठंढे के मौसम में
नालन्दा
यह स्थान राजगीर से 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। प्राचीन काल में यहां विश्व प्रसिद्ध नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित था। अब इस विश्वविद्यालय के अवशेष ही दिखाई देते हैं। लेकिन हाल में ही बिहार सरकार द्वारा यहां अंतरराष्ट्रीय विश्व विद्यालय स्थापित करने की घोषणा की गई है जिसका काम प्रगति पर है। यहां एक संग्रहालय भी है। इसी संग्रहालय में यहां से खुदाई में प्राप्त वस्तुओं को रखा गया है।
नालन्दा से 5 किलोमीटर की दूरी पर प्रसिद्ध जैन तीर्थस्थल पावापुरी स्थित है। यह स्थल भगवान महावीर से संबंधित है। यहां महावीर एक भव्य मंदिर है। नालन्दा-राजगीर आने पर इसे जरुर घूमना चाहिए। नालन्दा से ही सटा शहर बिहार शरीफ है। मध्यकाल में इसका नाम ओदन्तपुरी था। वर्तमान में यह स्थान मुस्लिम तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध है। यहां मुस्लिमों का एक भव्य मस्जिद बड़ी दरगाह है। बड़ी दरगाह के नजदीक लगने वाला रोशनी मेला मुस्लिम जगत में काफी प्रसिद्ध है। बिहार शरीफ घूमने आने वाले को मनीराम का अखाड़ा भी अवश्य घूमना चाहिए। स्थानीय लोगों का मानना है अगर यहां सच्चे दिल से कोई मन्नत मांगी जाए तो वह जरुर पूरी होती है।
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