महात्मा बसवेश्वर वचन साहित्य -डॉ संघप्रकाश दुड्डे, हिंदी विभाग प्रमुख,संगमेश्वर कॉलेज सोलापुर
महात्मा बसवेश्वर |
बसव वचन
देवलोक मर्त्यलोक अलग नही है।
सत्यवचन बोलना ही देवलोक।
असत्यवचन बोलना ही मर्त्यलोक।
सदाचार ही स्वर्ग, अनाचार ही नरक।
आप ही प्रमाण है कूडलसंगमदेव!
महात्मा बसवेश्वर भारतीय मनीषा के प्रथम बागी धर्म गुरु हैं, उनका विद्रोह अंधविश्वास और अंधश्रद्धा के विरोध में सदैव मुखर रहा है। महात्मा बसवेश्वर के काल में समाज ऐसे चौराहे पर खड़ा था, जहां चारों ओर धार्मिक पाखंड, जात-पात, छुआछूत, अंधश्रद्धा से भरे कर्मकांड, पंडित-पुरोहितों का ढोंग और सांप्रदायिक उन्माद चरम पर था। आम जनता धर्म के नाम पर दिग्भ्रमित थी।
१२ शताब्दि जो बसवेश्वर की चेतना का काल है, पूरी तरह सभी प्रकार की संकीर्णताओं से आक्रांत था। धर्म के स्वच्छ और निर्मल आकाश में ढोंग-पाखंड, हिंसा तथा अधर्म व अन्याय के बादल छाए हुए थे। उसी काल में अंधविश्वास तथा अंधश्रद्धा के कुहासों को चीर कर बसवेश्वर रूपी दहकते सूर्य का प्राकट्य भारतीय क्षितिज में हुआ।
बसवेश्वर का जन्म कर्नाटक के इंगळॆश्वर ग्राम मॆ रोहिनि नक्षत्र, अक्षय तृतिय, आनंदनाम संवत 30-4-1134 को हुवा। माता मादलाम्बिके ऒर पिता मादरस. बसवेश्वर का मृत्यु श्रावण सुद्ध पंचमि, नळनाम संवत 30-7-1196 को हुवा।
बसवेश्वर बीच बाजार और चौराहे के संत हैं। वे आम जनता से अपनी बात पूरे आवेग और प्रखरता के साथ किया करते हैं, इसलिए बसवेश्वर परमात्मा को देखकर बोलते हैं और हम किताबों में पढ़कर बोलते हैं। इसलिए बसवेश्वर के मन और संसारी मन में भिन्नता है।
आज समाज के जिस युग में हम जी रहे हैं, वहां जातिवाद की कुत्सित राजनीति, धार्मिक पाखंड का बोलबाला, सांप्रदायिकता की आग में झुलसता जनमानस और आतंकवाद का नग्न तांडव, तंत्र-मंत्र का मिथ्या भ्रम-जाल से समाज और राष्ट्र आज भी उबर नहीं पाया है।
८०० सौ वर्षों के सुदीर्घ प्राकट्यकाल के बाद भी बसवेश्वर हमारे वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के लिए बेहद प्रासंगिक एवं समीचीन लगते हैं। वे हमारे लोकजीवन के इर्द-गिर्द घूमते नजर आते हैं। बसवेश्वर मानवीय समाज के इतने बेबाक, साफ-सुथरे निश्छल मन के भक्त कवि हैं जो समाज को स्वर्ग और नर्क के मिथ्या भ्रम से बाहर निकालते हैं। वे पुजारि और पंडितों को साफ लफ्जों में दुत्कारते हैं। बसवेश्वर आज भी दहकते अंगारे हैं। कानन-कुसुम भी हैं बसवेश्वर जिनकी भीनी-भीनी गंध और सुवास नैसर्गिक रूप से मानवीय अरण्य को सुवासित कर रही है। हिमालय से उतरी हुई गंगा की पावनता भी है बसवेश्वर।
बसवेश्वर भारतीय मनीषा के भूगर्भ के फौलाद हैं जिसके चोट से ढोंग, पाखंड और धर्मांधता चूर-चूर हो जाती है। बसवेश्वर भारतीय संस्कृति का वह हीरा है जिसकी चमक नित नूतन और शाश्वत है।
बसवेश्वरने संतृप्ति से गुरु के पास आकर नमस्कार किया। तब वे बोलते हैं -
मन ही साँप है, तन संपेरे की टोकरी;
साँप के साथ स्नेह संबंध है;
पता नहीं कब प्राणहरण करेगा,
पता नहीं कब काट खायेगा,
इसलिए प्रतिदिन आपकी पूजा करे तो
वही संपेरा का मंत्र है - हे, कूडलसंगमदेव। /312 [1]
गुरुदेव, शरीर रूपी टोकरी में मन रूपी सर्प है। इसका खेल बहुत ही विस्मयपूर्ण भयानक है । कह नहीं सकते कि यह कब नाश करेगा। जो मंत्र विया जानता है और सर्प दंशन की औषधि से परिचित है वही उसको खेलाता है। वैसे मैं नित्यार्चन रूपी औषधि रखकर ही संसार रूपी सर्प से खेलने जाऊँगा । आप का अनुग्रह सदा रहे। कभी भी मेरा मन संकीर्णता और स्वार्थ से कलंकित न हो जाय । गुरुदेव मेरे आरक्षित मन को बिगड़ने से
बचाइए ।
बलदेवरस को गुरुवर के द्वारा सम्मति की सूचना मिली तो वे बहुत खुश हुए । मगर बसवेश्वरने कुछ निर्बन्धों को रखा। जब मैं कई आदर्शों के स्वप्नों को साकार करने निकलूँगा तब किसी तरह की रुकावटों, राजकीय दबावों को न डालना चाहिए। दूसरा, मुझ से संस्थापित होनेवाले धर्म के अनुसार स्त्री-पुरुष भगवान की दृष्टि में धार्मिक क्षेत्र में समान रूप से मान्य हैं। अतएव आप को अपनी बेटी को भी दीक्षा संस्कार देने में स्वीकृति देनी है। दूसरे निर्बन्ध से बलदेवरस भयभीत हुए। “बसव कहीं ऐसा हो सकता है ? हमारे संप्रदाय के अनुसार स्त्री शूद्र के समान है। संस्कार से वह बहिष्कृत है।'
ऐसा हो तो संस्कार रहित शूद्र की माता से जन्मा कोई अपने शूद्रत्व को ठुकराकर कैसे ब्राह्मण हो सकता है ? जन्म से सभी शूद्र हैं । संस्कार से ब्राह्मण हो सकता है तो सभी लोग धर्म संस्कार के लिए योग्य है न ? इसके अतिरिक्त सति-पति दोनों को एक ही संस्कार, गुणशील के होने चाहिए। धान-चावन दोनों को एक साथ मिलाकर भात नबना सकते हैं। उसी तरह संस्कार युक्त पति, संस्कार रहित पत्नी दोनों का सम्बन्ध और जीवन धान-चावल को मिलाकर पकाने के समान है। तीसरा पुरुष की तरह स्त्री को भी पेट की भूख वासना है ; उसके लिए विवाह कर लेती है । उसी तरह - उसमें भी आत्मा है ; आत्मा की भी भूख है; उसको मिटाने के लिए धर्म साधनों को हमें जुटाना है । बलदेवरसने यह तर्क मान लिया। विवाह का दिन निश्चय करके वे अपने परिवार के साथ कल्याण नगर को निकल पडे ।
संगमनाथ ने स्वप्न में जो आज्ञा दी थी उसके अनुसार बसवेश्वर प्रात: काल के पहले ही स्नान करके शुभ्र वस्त्रों को पहनकर मंदिर में आकर बैठे। बुद्ध भगवान जिस प्रकार बोध गया में वट वृक्ष के नीचे ध्यान मग्न हो बैठे उसी प्रकार बसवेश्वर संगमनाथ के सम्मुख अंतर्मुख होकर आसीन हुए ।
प्रभु आपको खोज रहा हूँ
आप ही की खोज में लगा हूँ।
निवेदन करते समय पनः नामेश्व
कीट सा ध्यान में लीन हूँ
भ्रमर की भांति मुझ पर कृपा कीजिए
मेरे समस्त अपराधों को क्षमा कीजिए ।
ज्ञान से जानकर पंचविषयों को दर करके
अंतरंग में सन्निहित होकर, बहिरंग में निश्चित हूँ मैं
स्वाती बूंद को जैसा सीपी चाहती है
वैसा ही गुरु कारुण्य के लिये चाहता है मेरा मन हे कूडलसंगमदेव ।
परिचय ज्ञान पाये, मैं हुआ स्थिर
विषय का स्पर्श रहा नहीं कोई
अंतरंग में सन्निहित हुए
हुआ मैं बहिरंग से निश्चिंत
स्वाति बूँद को चाहती सीप सा
मैं रहा चाहता गुरु कारुण्य
हे कूडलसंगमदेव ॥

तब अचानक प्रकाश दिखाई पडा । गोलाकार वह प्रकाश आकार को धारण कर ध्यानासक्त बसवेश्वर के सिर पर अपने दोनों हाथों को रखने से एक अखंडशक्ति उनके शरीर में अवतीर्ण होने लगी। वह प्रकाश उनके सर्वांगों में प्रविष्ठ होकर उनको पुलकित
कर रहा था।
इसी संदर्भ में एक महत्तर घटना घटी। "भगवान निराकार है, उसकी पूजा कैसे की जाय ? भक्ति को कैसे व्यक्त करना ? मनुष्य में तीन करण हैं -तन, वाकू और मन। मंत्रों के द्वारा मन से ध्यान कर सकते हैं। वाक् के द्वारा बोलियों से प्रार्थना कर सकते हैं। हाथों से अर्चना करने के लिए एक वस्तु को तो रहना चाहिए। वह यदि पौराणिक देवता हो, पौधा हो, जानवर हो, महात्माओं का आकार हो तो निर्गुणत्व का भंग होगा । क्योंकि भगवान निकराकार है। निराकार, निरवय भगावान को साकार बनाकर अर्चना के लिए योग्य कैसे किया जाय ? " ये प्रश्न कई सालों से उनके सिर में स्थित थे। जब एक दिन गहरी चिंता में डूबकर विशाल पृथ्वी - अंबर का वीक्षण करते रहे तब उनके मन में एक विचार कौन्ध गया ।
कार्य के द्वारा कर्ता का अस्तित्व व्यक्तित्व ज्ञात होता है । कर्ता का कार्य ही यह संसार है। यह गोलाकार है। गोलाकार अनादि अनंत तत्वों की शून्यता परिपूर्णता का चिन्ह है । गोलाकार में आदि-अनंत रूपी भगवान का चित्रण कैसे किया जाय ? भगवान की कल्पना करते समय स्त्री-पुरुष का भेद वहाँ नहीं है, किसी ब्रह्म, विष्णु, महेश्वर के आकारों की कल्पना भी न होगी केवल एक अनंत की कल्पना आयेगी । दृष्टियोग के अभ्यास के लिए एकटक देखकर उसका रंग काला किया जाये । करतल में स्थित रूप में बैठने के लिए तल को पूर्ण गोलाकार न करके समतल करे तो ठीक होगा। हृदय में अंगूठे के परिमाण में स्थित भगवान के परिमाण की तरह उसका गात्र हो । आकस्मिक रूप से उदित कल्पना बसव को भव्य अनुभूत हुई।
जल से अभिसिंचित कर, धूपदीप, नैवेद्य आदि से अष्ट विधार्चन करने में यह सहायक होता है। सीधी दृष्टि से त्राटक योगाभ्यास करने में साधन होता है । इसके अतिरिक्त कोई पुरुष हो या यदि स्त्री, जाति से कोई ब्राह्मण हो या भंगी, पूजा करना चाहता है उसे उन्हें दे सकते हैं। जो इस धारण करते है उन्हें जाति, वर्ण, वर्ग का भेद नहीं करना चाहिए क्योकि एक ही प्रतीक के नीचे भेदों को भूलकर एक होने में सहायक होता है । भगवान की पूजा करना, धन खर्च करना, पूजारियों की हिंसा आदि से बच सकते हैं । जहाँ तक मन चाहता है वहाँ तक पूजारी के ऋण के बिना पूजा करने में साध्य होता है । इसको शरीर पर धारण करके कहीं भी ले जा सकते हैं। यह कैसी सुन्दर-मधुर कल्पना है। इस कल्पना के साथ उनका उत्साह पंखे खोलकर उडा। परंतु इस नये आचरण का आरंभ कैसे करें ? पाशुपति शैव मतानुयायी गुरुजी मंदिर के लिंग की पूजा करने के संप्रदायवाले हैं। करतल पर लिंग को रखना क्या मान सकते हैं ? यह उद्दंडता समझ कर यदि इनकार करें तो ?
बसवेश्वर ने अपनी कल्पनाओं को रूप देकर इष्टलिंग की रचना करके रहस्य में छुपाकर रखा था। गुरु के सामने खोलकर रखने का उसमें साहस न था ।
अब गुरुकुल छोडने और स्वतंत्र कार्यारंभ करने का समय आया था। अपने भविष्य को अंतरंग में निश्चय करके ( यहाँ किसी लौकिक गुरु की सम्मति आवश्यक नहीं) उस महालोक गुरु की सम्मति पाने का निश्चय करके उस इष्टलिंग को ( इष्ट का अर्थ है कि पूजा के लिए योग्य आकांक्षाओं को कराने साधक का इष्टदेव होने के कारण इष्टलिंग नाम से पुकारा) बसवेश्वर अपने साथ जो ले आये थे उसे करतलपर रख लिया था। जिस प्रकाश ने एक आकार बनाकर अपने हाथों को बसवेश्वर के ऊपर रखकर अनुग्रह किया था उसी प्रकाश की कांति इष्टलिंग में प्रवहित हुई । इस तरह वह प्रकाश इष्टलिंग को चित्कलापूर्ण करके बसवेश्वर को सद्गुरु होने का अनुग्रह देकर शून्य में विलीन हो गया। जैसे ही भगवान की करुणा उनको मिली वैसे ही वे सामर्थ्य को पाकर शोभित हुए। [2]
इस प्रकार संगमदेव पति होकर बसवेश्वर सति होकर पंचाक्षरी की गति होकर सद्भक्ति की बुद्धि बनकर बसवेश्वर शिव की वधू हुए। [3] और महागुरु सिद्ध हुए। ऐसे अपने हृत्कमल में उत्पन्न ( रूप प्राप्त कर) लिंग को करस्थल में (3) भक्ति से आसीन करते हैं। उनके अंतरंग में प्रज्वलित कल्पना ने न केवल रूप धारण किया बल्कि भगवान का अनुग्रह, सम्मति को प्राप्त करने से उनके आनंद की सीमा न रही। संतोष के आँसू आँखों से बहने लगे। धन्यता का भाव प्रतिबिम्बित हो उठा। मुख पर तेज झलकने लगा, उनके नेत्रों से संतोष की सलिला प्रस्रवित हो उठी।
इस प्रकार संगमेश्वर ने अनुग्रह करके उन्हें समार्थ्य शक्ति दी । लोकोद्धार के लिए अपने पुत्र को सन्नद्ध किया । इष्टलिंग की कल्पना और दैवी कारुण्य की प्राप्ति से उन्हें बहुत आनंद हुआ । तब वे भावोन्माद से गाते हैं और भगवान की लीला की प्रशंसा करते हैं ।
जग-सा विशाल, नभ-सा विशाल
आपका विस्तार उससे भी परे है।
पाताल से भी पार तेरे श्रीचरण,
ब्रह्मांड से बी पार तेरे श्री मुकुट,
अगम, अगोचर अप्रतिम हे! लिंग
कूडलसंगमदेव,
तुम मेरे करस्थल में समा गये। /201 [1]
इस प्रकार बसवेश्वर जी को स्वरूपज्ञान प्राप्त हुआ। स्वयं परमात्मा ही ज्ञानगुरु होकर मार्गदर्शन बन गये । परमात्मा ही सद्गुरु होकर अनुग्रह करने पर बसवेश्वरजी भगवान की इस लीला को देखकर विस्मित हुए। वे कहते है कि “ प्रभू ! आपकी कृपा से ही मैने आपको पहचाना "ऐसा कहकर वे परमात्मा के श्रीचरणों में शरणागत होकर कहते हैं कि -
श्री गुरु की कृपा से हस्त मस्तक संयोग से
प्राणलिंग करस्थल पर विराजने लगा
भेदभाव बिना उस लिंग को अपना कर हर्षित हुआ
भावोन्माद से झूमने लगा मेरा मन
लिंग सान्निध्य में आनंदित हूँ, हे कूडलसंगमदेव ।
इस प्रकार प्रसन्न भाव से गाते हैं। यह इष्टलिंग किसी देवता, किसी भक्ति या प्राणी का चिह्न नहीं है । यह परवस्तु का चिह्न है, ऐसा स्पष्ट कहते हुए -
वेद वेदांत से परे
अनुपम लिंग सद्गुरु की कृपा सकरस्थल पर विराजने लगा
नाद बिन्दु - कलातीत
अचलित लिंग सद्गुरु की कृपा से
करस्थल पर विराजने लगा
आज मेरा यह जीवन सार्थक हुआ
मेरी आकांक्षा पूरी हुई हे कूडलसंगमदेव ॥
इस प्रकार बसवेश्वरजी का अपूर्व स्वप्न साकार हुआ।
अनमोल वस्तु हाथ लग गयी
आनंदित होकर गाऊँगा नाचूँगा
नयनों से भरपूर दर्शन करूँगा
जी भरकर आपकी भक्ति में लीन रहूँगा
- हे कूडलसंगमदेव ।
चिन्मय चित्प्रकाश परमात्मा और अपने हृदय कमल में जगमगानेवाली परंज्योती आत्मा यह दोनों साकार होकर अपने करस्थल में आया हुआ देखकर वे रोमांचित हुए ।
चिन्मय चित्प्रकाश चिदानंद लिंग हो आप
मेरे हृदय कमल में आलोकित परंज्योति है
मेरे करस्थल पर सुशोभित है
मेरे भ्रूमध्य में विराजते हैं; हे कूडलसंगमदेव ।
ऐसा कहते हुए इष्टलिंग को अपने करसथल पर प्रतिष्ठापित करके गौर से देखते हुए आनंदित होते हैं । बसवेश्वर जी की आशा आजकल की नहीं, बचपन से उगी हुई थी। पिछले बारह बरस से ही यह उदय होकर सर्वांग में व्याप्त होने से वे अब तृप्त हुए ।
पतिदेव के आगमन की प्रतीक्षा में
मैंने अंतरंग का आवास खाली कर दिया
अष्टदल प्रकोष्ट में निज निवास नामक बिस्तर बिछाया ।
ध्यान का परदा डाला, ज्ञान का दीप जलाया
निष्क्रिया रूपी उपचार आयोजित किया
पलक पावडे बिछाये, जोहने लगी बाँट
आँखों में प्राण लाकर
समय पर न पहुँचने से मेरी पीडा न बढ जाय
इस विचार से वे स्वयं आसीन हुए मेरे हृदय
सिंहासन पर पूरी हुई अभिलाषा मेरी
दूर हुई बारह वर्षों की प्रतिक्षाजन्य चिंता
आप कृपालु हैं इसलिए जीवित हूँ मैं
हे कूडलसंगमदेव ।
यह प्रसंग बहुत ही महत्वपूर्ण है। बसवेश्वरजी को साक्षात्कार का अनुभव और उनके इष्टलिंग की कल्पना भी सदृढ हुई। इसके बाद बसवरस संगन बसवा अर्थात् (कूडलसंगमदेव के पुत्र) और बसवलिंग नाम से विख्यात हुए। यह तो बसवेश्वरजी केजीवन की अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है । क्योंकि इसके बाद ही वे भगवान की अपार कृपा पाकर परमात्मा का नमास्मरण करते हुए क्रांतिकारक क्षेत्र में प्रवेश करने चल पडे। यह उनकी मानसिक परिवर्तन की घटना भी है और बहुदेवोपासना से एक- देवोपासना का प्राथमिक आयाम भी
मनको भाता नहीं सो पतिदेव
मेरे मनको भारी, सुनो मेरी बहन
पन्नग भूषण पति के बिना परपुरुष का
मुँह क्या देखना बहन
कन्या की भांति बचपन का जीवन
तेरी कसम से जीऊँगी हे कूडलसंगमदेव ।
ऐसा मानकर वे शिव के बिना अन्य देवताओं का तिरस्कार करने लगे। वे एक-देवता उपासना से विशाल व्याप्ति के वैयक्तिक क्षेत्र से निर्गुणोपासना की ओर चलने लगे। उन्होंने कहा कि परमात्मा कूडलसंगम क्षेत्र के चारों दिवारों के बीच में नहीं है। वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है ।
अनमोल, अप्रमाण, अगोचर है लिंग
आदि मध्य अवसान से स्वतंत्र है आप
नित्य निर्मल है लिंग आयेजित है आप
हे कूडलसंगमदेव ।
इस प्रकार वे जानते हैं ।
गुरु करुणा से हस्तमस्तक संयोग से
करतलामलक भांति प्राणलिंग को
करस्थल को लाकर - दिया तो
उस लिंग के बाहर भीतर भेद बिना
मैं हुआ मस्त खुश डोल उठा अमितानंद में
हे कूडलसंगम देव ।
वह लिंग पाकर आनंद में भर जाऊँ
सद्गुरु ने दिया मेरे करस्थल में
वह अनुपम लिंग जो
अलभ्य है वेद वेदान्तियों को भी
मेरे सद्गुरु ने दिया मेरे कर स्थल में
वह अचलित लिंग जो
अभेद्य है नाद बिन्दु कलाओं को भी
मेरे सद्गुरु ने दिया मेरे करस्थल में
वह अखंड लिंग जो
अगोचर है वाक् मन को भी
अब जी उठा मैं, मेरी चाह की कामना
हाथ लग गई, हे महा कूडलसंगमदेव ॥
इस तरह बसवेश्वर स्वयं साधना से भगवान का दिव्यानुग्रह पाकर महान हुए । उनकी समस्त क्रिया के पीछे भगवान का संकल्प था । उसका हरिहर कवि वर्णन करते हैं -
मांग लाडले संग तेरे आऊँगा बसव......
कसम तेरी साथ तेरे आऊँगा बसव...
लाल मेरे मांग मांग मुझ से हे स्नेह पारावार
आऊँगा तेरे ही पीछे मेरे सुकृत के अमृत
याद करे तो रहूँगा तेरे सामने
पुकारे तो मैं कहूँगा हाजिर
तेरे तन मन कर में बसूँगा
खडा रहे तो खड़ा रहूँगा चल तो साथ चलूँगा
आने पर आऊँग कह तो मैं कहूँगा
चले लाडले चल बेटे बसव
धरती पर जियो बनकर अधिपति बसव ॥
बसवेश्वर के ऊपर संगमनाथ का संपूर्ण अनुग्रह रहा। इससे स्पष्ट होता है कि भगवान सदा उसके साथी बनकर रहे।
शरणों के नियम
हठ चाहिए शरण को पर-धन नहीं चाहने का,
हठ चाहिए शरण को पर-सती नहीं चाहने का,
हठ चाहिए शरण को अन्य देव को नहीं चाहने का,
हठ चाहिए शरण को लिंग-जंगम को एक कहने का,
हठ चाहिए शरण को प्रसाद को सत्य कहने का,
हठहीन जनों से कूडलसंगमदेव कभी प्रसन्न नहीं होंगे। / 196[1]
वैवाहिक जीवन
केश मुडाकर दूल्हा बन बैठा
प्रभो बेशरम हो कर भी
लिंग को संप्रीत करूँगा मैं
लाज रहित हो कर भी
लिंग को संप्रीत करूँगा मैं
पडोसी सांसारिक रहे उडाते हंसी मेरी
तुम्हारी शरण में आया हूँ प्रभो कूडलसंगम देव ।
बसवेश्वर विवाह मुहूर्त के कुछ क्षण पहले ही गहरे ध्यान में लगे हुए हैं। उनकी भगवान से प्रार्थना है कि वैवाहिक जीवन से अपना आदर्श मिथ्या न बने। परिवार के कुछ -लोग उपहास्य करते हैं कि विवाह के अवसर पर दूल्हा कल्पना हास्य में तैरने के बदले सन्यासी की भांति ध्यानमग्न है। विवाह तो सांगोपांग संपन्न हुआ। प्रधानामात्य के दामाद होत हुए भी बसव गर्व किये बिना सरल जीवन बिताते थे -
चलने में, बोलने में कहत संग शरण ।
पहनने में, खाने में कहत संग शरण ।
देने में, मांगने में कहत संग शरण ।
आरंभ में, धारण में कहत संग शरण ।।
भगवान में दृढ श्रद्धा रखकर नीलगंगा के साथ वैवाहिक जीवन आरंभ करत हैं ।
विवाह संपन्न होकर चार पाँच दिन हुए होंगे। एक दिन बलदेवरस से बातें करते हैं - "ससुरजी, स्वयं उपार्जित धन श्रेष्ठ है, पिता का उपार्जित धन मध्यम है, स्त्री सम्बन्ध से प्राप्त ससुर की संपत्ति अधम है।” इसलिए विवेकशील व्यक्ति दूसरों की उपार्जित संपत्ति पर जीवन गुजारना नहीं चाहते । मैं"कायक को ही कैलास मानने के तत्व को अनुष्ठान में लाना चाहता हूँ। " बसवेश्वर, क्या मैं तुम्हारे लिए दूसरा हूँ ? तुम दोनों के अलावा मेरी संपत्ति का उपयोग और कौन करेगा ?
मेरा कहना यह नहीं कि आप मुझ से भिन्न हैं । ससुरजी, जो कुछ मैं कमाता हूँ सिर्फ उसे खाने का अधिकार मुझे है । आप कृपया अपना विचार बदल लीजिए कि आप की पुत्री और मैं ही आपकी संपत्ति के खाने के अधिकारी है । परिश्रम करने का सामर्थ्य मुझ में है इसलिए मैं परिश्रम करके ही खाऊँगा । निर्बल, दीन-दुखियों की सेवा में आप की संपत्ति का सदुपयोग हो जाये.
उद्योगम् पुरुष लक्षणम् । शक्तिशाली आदर्श पुरुषों में ये गुण रहते हैं -
उद्यमः साहस धैर्य बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत् ॥
“जहाँ ये छ: गुण होते हैं वहाँ दैविक सहायता का लक्ष्य हो जाना साध्य है । कृतयुग से कालमान का प्रारंभ होता है। जगत् के सृष्टिकर्ता भगवान कार्योन्मुख है तो मैं क्यों कार्योन्मुख न होऊँ ?” “ बसवेश्वर, तुम तो स्वभावतः अध्यात्म-जीव हो । उद्योग में लग जाये तो काफ़ी समय व्यर्थ होगा । इस समय को भी पूजा के लिए विनियोग कर सकते हो न .....
" सत्य है, ससुरजी मगर पूजा आत्मोन्नति के लिए की जाती है । समष्टि की उन्नति के लिए करनेवाला शारीरिक तप, कायक (कर्म) के बिना न किसी को जीवित रहना। जब तक शरीर, प्राण, मन, आत्मा रहते हैं तब तक प्रत्येक को शारीरिक कायक, भोजन, अध्ययन, उपासना अवश्यक है।”
"ऐसा ही हो बसवेश्वर, तुम्हारी इच्छा का विरोध न कर सकता .... "
"अच्छा ससुरजी, मैं कल आप के साथ महल में आऊँगा मगर आप किसी प्रकार का दबाव लाकर अद्योग दिलवाने की कोशिश न करें। स्वयं प्रतिभा के आधार पर ही अपना काम ढूँढ लेना है । ढोकर ले जानेवाला कुत्ता क्या खरगोश को पकड़ेगा ?"
और एक चिन्ता मुझे सता रही है। मेरी संपत्ति अधिक है। नीलगंगा इकलौती पुत्री है । तुम ठुकरा रहे हो । अब बाकी रहा एक ही मार्ग । कल्याण नगर के चारों तरफ़ धर्मशालाओं का निर्माण करके उस धन से आनेवालों को भोजन की व्यवस्था करेंगे। तुम्हें यह स्वीकार है क्या ?
'ससुरजी, यह एक दृष्टि से देश द्रोह करने की भांति है "
"कैसा विचित्र है, वह कैसे ?"
“कामचोर, गूँडे, मुफ्त का भोजन मिलने का समाचार पाते ही वहाँ आकर आश्रय लेते हैं और आलसी बनकर समय गुजारते है। हम ही उनके आलसी बनने के कारण होते हैं । उसको बदले कृषि आय बढाने, विविध उद्योगों की योजना तैयार करके कायक का सदुपयोग कर लेना होगा। अपने-अपने अन्न को खुद कमाने का मार्ग लोगों को दर्शाना है । अन्न का मूल्य समझने के लिए परिश्रम करना आवश्यक है ।"
बलदेवरस ने उद्गार किया कि "तुम्हारी बुद्धिमत्ता अद्भुत है, बसवेश्वर तुम साधारण नहीं हो । "
कितने भी समय से पत्थर पानी में रहे तो, क्या हुआ?
भीगकर भी क्या कोमल होगा?
कितने भी समय से आपकी पूजा करने से क्या हुआ?
यदि मन में दृढ़ता नहीं है तो?
गुप्त धन की रक्षा करनेवाले पिशाच की तरह
मेरी स्थिति हुई है हे कुडलसंगमदेव । / 90
कायक की स्वीकृति-कारणिक (लेखाकार ) का पद
अगले दिन मंत्री बलदेव के साथ बसवेश्वर महल की ओर चले। उस दिन सबेरे राज महल के वित्त कार्यालय के बारे में मंत्री बलदेव का संदर्शन था । वार्षिक आय- व्यय का मंडन होनेवाला था । बसवेश्वर को वित्त कार्यालय में छोडकरें मंत्री महोदय सभा भवन में गये। वित्त मंत्री सिद्धरस को साथ लेकर बलदेवरस कार्य निर्वाह के लिए पधारने लगे थे।
बसवेश्वर एक ही जगह पर बैठे-बैठे ऊब गये। वहाँ से उठकर खामोशी से सब को देखते चले। वहाँ पर चालित रिश्वतखोरी का व्यवहार देखकर बसवेश्वर आश्चर्य चकित हुए।
चलते चलते कारिणिकशाला में आकर बैठे
ठाठ से लिखते गणकों को देखते देखते
करण संप्रति की संपदा के चोर गणकों को
उकोच बहाते चोर दण्डनाथों को ॥
उनके मन में बहूत दुख हुआ। वहाँ ठहर न सके। बसव उठकर उनके पास चले आये ।
"महोदय, दूसरों के जूठन के लिए हाथ पसारकर आत्मद्रोह कर लेने का नीच कार्य मत करो ....." इस उपदेश को सुनकर वे आपस में मुस्कुराकर हँसने लगे। उनमें से एक बोला...
"हे युवक, जो वेतन राज्य के खजाने से मिलता है उससे बीबी -बच्चों का पेट भरेगा क्या ? ऐसा दीख पडता है कि अभी पारिवारिक बोझ तुम पर नहीं पड़ा है।"
"हो सकता है, मगर अधिक भूख लगी है कहकर आक का फल क्या कोई कोई खा सकता है ? प्यास है कहकर क्या विष पिया जा सकता है।'
" अन्न अलग, आक का फल अलग, विष अलग, पानी अलग। इसी तरह वेतन, धन क्या अलग-अलग है ? ये दोनों टकसाल में छपकर धन के रूप में आते हैं न ?"
"सच है, चूने का पानी सफेद है ; दूध का खीर भी सफेद ऐसा कहकर रिश्ते में जो जो बिरादर आते हैं क्या उनको चूने का पानी पिलायेंगे ? स्वयं परिश्रम और सत्यमार्ग से जो आता है वह दूध के खीर के समान है, रिश्वतखोरी की कमाई चूने के पानी की तरह है । आदर्श जीवन के लिए आवश्यक है कि धन में शद्धता, प्राणों में निर्भयता हो । ऐसा मनोभाव आप का न हो, जिस किसी भी ढंग से हो जैसा आ जाय ।"
इतने में सब खामोश होकर कार्योन्मुख हुए।
कल्याण में आगमन
बिज्जल राजा बलिष्ठ होकर चालुक्य तैलप को बलहीन करके गृहबन्धन में (ईसवीं 1155 से) रखकर अपने पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए कल्याण नगर को अपने स्वाधिकार को स्थानांतरित करने में लगा। उनके विश्वासी लोग भी उसके साथ कल्याण आने लगे। इसी पृष्ठभूमि में विक्रमनाम संवत्सर (ईसवीं 1160 ) श्रावण सोमवार को सुप्रभात में प्रधानामात्य बलदेवरस धर्मपिता बसवेश्वर और उनके परिवार के अन्य लोग भी कल्याण नगर में पधारे।
बिज्जल ने पहली बार जब चालुक्यों के महल के पूजागृह में प्रवेश किया तब विशेष मंडप में संपूज्य शांतेश्वर लिंग की अर्चना करते समय, उस दिन एक विशेष वस्तु उनको दिखाई पड़ी। आरती के प्रकाश में चमकती गेन्डुरी (लपेटी हुई चीज) को उठाकर खोला। वह एक अत्यंत पतला स्वर्णपत्र था उस सोने के पत्रपर विचित्र लिपियाँ थीं। जब राजा को उसे पढना असाध्य लगा तब उसने तुरंत नगर के विद्वानों को बुला भेजा। उस सुवर्ण पत्र को पहले पढने के लिए बलदेवरस, कोण्डी मंचण्णा, नारण कमितरु, पेद्दरस, विष्णुभट्ट सौरी पेद्दी आदि अनेक विद्वानों ने प्रयत्न किया तो भी संभव नहीं हो सका।
“बसवेश्वर, हम से छोटे होने पर भी प्रतिभावान है। उसको भी पढने क्यों नहीं देना चाहिए ? बलदेवरस प्रस्ताव किया, पेद्दरसने अनुमोदन किया ।”
"अहा, यह कैसी कच्ची सलाह। हम जैसे बुजुर्गों ने भी नहीं समझा तो उसे कैसे मालूम होती है जिसकी मूँछ अभी तक पकी नहीं है....? कोण्ड मंचण्णाने टीका की। "
"कोई भी हो, पढे तो बस, देश का हित होगा तो क्यों न प्रयत्न न करें ? ऐसा कहकर लिपिक कार्यालय में अपने कर्तव्य का निर्वहण करते हुए बैठे बसवेश्वर को बुला भेजा। "
" जब बसवेश्वर आये तब उसको पूरा विवरण कह सुनाया"
“बसवेश्वर, आप भी प्रयत्न कीजिए...... "
" प्रभु की दया कहकर हाथ में लिया, गेन्डुरी को खोलने के पहले मन में ध्यान किया..... "
मेरा वाम-क्षेम आपका है जी।
मेरी हानी-वृद्धि आपकी है जी
मेरा सम्मान-अपमान आपका है जी
लता को फल क्या कभी बोझ होता है?
हे। कुडलसंगमदेव। / 97 [1]
स्वर्ण पत्र की गेन्डुरी खोली ।
“महाराज, यह दर्पण लिपि है, प्राचीन कन्नड़ में है। दर्पण की सहायता से इसे पढना चाहिए।" राजा का इशारा पाकर सेवक दर्पण ले आया । बसवेश्वर तब तक उस पन्ने पर आँखें फिराते रहे। दर्पण की सहायता से पढकर बोले।
"प्रभु, अत्यंत आनंद का विचार है .....।” बिज्जल आश्चर्यान्वित हुए, सभा जागृत हुई ।
“चालुक्य साम्राज्य रत्नाकर त्रिभुवन मल्ल पेर्मडी विक्रमादित्य इस सिंहासन के नीचे अपने स्वर्णयुग की बचत सडसठ करोड सोना छोड गये हैं........... "
"वाह, वाह.... बिज्जल ने आश्चर्य से उद्गार किया।"
"प्रभु, यह असत्य है, सिंहासन को पलटकर आप के अधिकार को दोष लगाने का कुतंत्र है बसवेश्वर का " कोण्डी मंचण्णाने विरोध किया
प्रभु, असत्य हो तो सिरच्छेद दंड हो; सत्य हो तो देश को संपत्ति मिलेगी" बसवेश्वर ने स्पष्ट रूप से कहा। बिज्जल उनकी सलाह के अनुसार निश्चित स्थल पर खुदवाने से सडसठ करोड का सोना प्राप्त हुआ। बिज्जल के आनंद की सीमा न रही।
यह रत्नहार स्वीकार कीजिए, बसवेश्वर । आप की बुद्धिमत्ता के लिए यह पुरस्कार. "I
क्षमा कीजिए प्रभु, मैंने तो मामूली कर्तव्य को निभाया है, उसके लिए क्या पुरस्कार ? आप से तो वेतन लता हूँ न ?”
"ऐसा हो तो आपने जो धन निकालकर दिया उसमें से थोडा भाग ले लीजिए ।"
" ले सकता था किन्तु लेने के लिए मुझे, देने के लिए आप को अधिकार ही नहीं है न"
"आर्थात् ....इसका उपार्जन किया है विक्रमादित्य प्रभुने। इसके असली मालिक हैं प्रजा । उन्हीं के हित मात्र के लिए उसका उपयोग कर सकते हैं, न कि दूसरों के लिए । सामूहिक शिक्षा के लिए व्यवस्था करनी चाहिए। शिक्षा और सांस्कृतिक जीवन केवल कुछ ही वर्गों की संपत्ति हो गया है। उसे सब को प्राप्त कराना चाहिए ।"
"बसवेश्वर ऐसा ही हो, आप को ही वह जिम्मेदारी सौंपता हूँ। मंडली का मुखिया बनकर योजनाओं को तैयार कर लीजिए। अपार अनुभवी मंत्री सिद्दरस, जो आपके साथ कंधे से कंधा मिलाकर परिश्रमं करते रहे थे, उनका देहांत हुए पर्याप्त समय बीत चुका है। भंडार के प्रधान सचिव का स्थान रिक्त हो गया है । बुद्धिमान, ईमान्दारी, प्रामाणिक, तत्वनिष्ठ व्यक्ति की उसमें नियुक्ति होनी चाहिए। ऐसे व्यक्ति हैं बसवेश्वरजी । उन्हींको वह वित्त सचिव स्थान दे देंगे।” बिज्जल का आदेश पाकर गुणी लोग हर्षित हुए, दुश्मन लोग जलने लगे। बसवेश्वर लेखाकार बनकर दरबार गये। जब वे राज लांछन और आप्त दरबारियों के साथ वित्त मंत्री होकर लौटे, तब दीदी नागलांबिका और पत्नी नीलगंगा ने विशेष स्वागत का इंतजाम किया ।
नागलांबिका ने आरती से स्वागत करके कहा कि "बसवेश्वर, तुम कितने प्रतिभावान हो, मुझे तुम पर अभिमान है।"
"दीदी, यह मेरी प्रतिभा का द्योतक नहीं, संगमनाथ की करुणा का फल है। उसकी दया के बिना ऊपर उठना क्या संभव है ?"
शिव जब देगा तो संपदा आयेगी पीछे
बाढ आये तो भरेगा तालब जैसे
राज परिवार की हुई कृपा
अलभ्य वस्तु होती लभ्य
परम प्रभु को भूले तो
छाये आँगन का पत्थर उठ जाय जैसे ॥
उन्होंने विनय से शरणागत भाव से भरकर कहा ।
चोर के "शरण” बनने का प्रसंग
एक दिन बसवेश्वर सोये हुए थे। पत्नी नीलगंगांबिका महामने के प्रसाद प्रकोष्ठ का कामकाज समाप्त करके अभी सोई हुई थी। शारीरिक परिश्रम के कारण उन्हें गहरी नींद आयी थी। इतने में एक चोर अंदर आकर निद्रित नीलांबिका के गहनों को खोलते हुए उसने उनके कर्णाभरण को भी उतारने के लिए जब हाथ लगाया तो उनकी नींद खुल गई । जलते दीप की रोशनी में भयंकर मुख को देखकर भयभीत हो गयी।
हाय, चोर, चोर" कहकर चिल्लाया । इतने में वह वहाँ से भागने लगा तो बसवेश्वर की भी नींद खुली।
“क्या हुआ नीला ? क्यों चिल्लाया ?"
'चोर आया था; मेरे कानों में हाथ लगाया"
इतने में महल के पहरेदार चोर को पकडकर लाये। उस चोर को देखकर बोलते है
विश्वास था तुम हो साथ मेरे सति
विश्वास था मेरा हाथ थामे बनी हो तुम सज्जन
हाय मेरे बन्धु के हाथ दुखे हैं
कर्णाभरण उतार इसे दे दो नीला
चोर के घर में चोर घुसे
वह अन्य नहीं है महा कूडलसंगमदेव ॥
नीला, मैंने समझा था कि तुम मेरी धर्म सहचारिणी, आदर्श सती हो। परंतु तुमने उस निष्ठा को नहीं निभाया । तुमने मेरे मुग्ध पिता का हाथ दुखाया। तुम उसको देखते ही बिना चिल्लाये खुद कर्णाभरण को उतारकर क्यों नहीं दे दिया ? उनकी ध्वनि में उद्विग्नता थी।
यह कैसी विपरीत बात है ? क्या चोर को गहनों को उतारकर देना है ? "नीलांबिकाने आश्चर्य से पूछा
"नीला, चोर कौन है ? चोरी करनेवाला नहीं, चोरी करा लेने के लिए छिपकर रखनेवाला ही चोर है। आवश्यकता से अधिक संग्रह करनेवाला क्या चोर नहीं ? मैं ही सचमुच चोर हूँ । मेरी व्यथा तुझे कैसे मालूम ? मुझे चोरी, वेश्याजीवन, शोषण, छल आदि से रहित समाज के निर्माण की अपेक्षा है। मैं व्यग्र हूँ कि यह अपेक्षा कब सफल होगी ? "भैया, "तुम इसलिए आये हो कि तुम्हें गरीबी की चिन्ता है; नहीं तो तुम्हारी पत्नी के पास आभूषण न होंगे। आर्य, इन गहनों को ले लो। अपनी पत्नी को पहनाकर खुश हो जाओ। यदि गरीबी हो तो इनको बेचकर अपनी गरीबी को दूर कर लो।" नीलांबिकाने जब एक-एक गहने को उतार कर दिया तो बसवेश्वरने उन गहनों को चोर को दिया। चोर को बहुत पश्चात्ताप हुआ। सिसक-सिसक रोने लगा। उनके चरणों पर गिर पड़ा और कहा कि" पिता, मेरे अपराध को क्षमा कीजिए। इस कलंक को बच्चा समझकर पेट में रखिए । "
बसवेश्वर ने प्यार से ऊपर उठाया । " मेरा पुत्र ही नहीं, तुम नीलगंगाबिका के गुरु भी हो जिसे सरल पाठ सिखाया।"
फिर बसवेश्वर ने कहा - नीला, संग्रह करने से समाज में अतृप्ति, अंतर उत्पन्न होता है। मैं आज ही प्रतिज्ञा करता हूँ कि अपने लिए, अपनी पत्नी, अपने बच्चों के लिए कुछ भी संचय नहीं करूँगा। तत्पश्चात, नीलगंगांबिका बसवेश्वर के सभी आदर्शों के अनुरूप उनके सभी कार्यकलापों में सह भागिनी बनकर परिश्रम में तत्पर हुई।
जाति, मत पंथों से मुक्त सामाज का निर्माण करनेवाले सब को 'शरण समाज " में आदर का प्रवेश था। वहाँ संपन्न होनेवाली अनुभाव गोष्ठी में धार्मिक विचारों में भाग लेने का पूर्ण स्वातंत्र्य सब को मिला था। निर्मापक सूत्रधारी श्री बसवेश्वरजी वहाँ आनेवाले सब को “ शरण" (अर्थात् शिवभक्त) मानकर हृदयपूर्वक स्वागत किया करते थे। " भगवान एक है, सभी मानव उनके पुत्र हैं "यही तत्व वहाँ अनुष्ठान में आया ।
प्रतिदिन सुबह और रात के समय अनुभाव गोष्ठी चलती थी। कोई एक सभा का अध्यक्ष बनते थे । सदस्य अपने सामाजिक, नैतिक, अध्यात्मिक और शिक्षा व्यावहारिक सम्बन्धी प्रश्न पूछ सकते थे। इस तरह प्रश्न किसी सदस्य से गोष्ठी में मंडित होते ही उपस्थित सदस्य संवाद रूप में चर्चा करते थे। अंत में विश्वगुरू बसवेश्वरजी चिन्मय ज्ञानी, चन्नबसवण्णा, आदि महाज्ञानि उस विषय के सम्बन्ध में निर्णयात्मक उत्तर देते थे ।
ऐसे "अनुभव मंडप” नामक एक प्रतीकात्मक पीठ की बसवेश्वरने स्थापना की। वह एक आध्यात्मिक सिद्धांत का संकेत था । ज्ञान से गुरुत्व प्राप्त होता है। इसलिए कोई भी ज्ञानी किसी भी जाति में पैदा हुआ हो तो वह धार्मिक पीठ पर आसीन हो सकता हैं, ऐसी घोषना करके उस धर्म पीठ को "शून्य पीठ" नाम दिया। अनुभव मंडप के सभी कार्यकलापों की देखभाल तथा मार्गदर्शन करनेवाले एक समर्थ व्यक्ति की आवश्यकता थी। ऐसे व्यक्तियों की प्रतीक्षा करते समय ही महामहिम अल्लमप्रभुदेव का आगमन् कल्याण में हुआ। उनका पदार्पण होते ही बसवेश्वेरने अनुभव मंडप के “शून्य सिंहासन" का अधिकार प्रभुदेव को सौंप दिया ।
देश के कोने-कोने से प्रतिभान्वित साधक अनुभव मंडप में आने लगे। उनमें से अत्यंत प्रतिभावान, शिवयोग-सम्राट अल्लमप्रभु, वैराग्यनिधि अक्कमहादेवी, कायकयोगी सिद्धरामेश्वर, ज्ञानभंडारी चन्नबसवण्णा, क्रांतिवीर मडिवाल माचिदेव थे। अनुभव मंडप के यदि विश्वगुरू बसवेश्वर आत्मा रहे तो अन्य पाँच उनके पंच प्राण थे। 770 अमरगण, हजारों धर्मानुयायियों का वहाँ समावेश हुआ ।
स्त्री समता की घोषणा करके स्त्रियों को भी धर्मसंस्कार का अधिकार देकर अनुभव मंडप में स्थान देने से 60 शरण स्त्रियों का वहाँ समावेश हुआ। उनमें से 30 शरण स्त्रियाँ वचन साहित्य के निर्माण में सक्षम हुई। इस तरह अनुभव मंडप संसार के प्रथम लोकसभा के रूप में अस्तित्व में आया। श्री गुरुबसवेश्वर उसके मूलाधार एवं आत्म स्वरूप की भाँति प्रकाशित हुए | शिवस्वरूप अल्लमप्रभु, प्राणस्वरूप सिद्धरामेश्वर, हृदय स्वरूप चन्नबसवण्णा, बाहुस्वरूप माचिदेव - मोळिगे मारय्या, नासिका स्वरूप अक्कमहादेवी - इस प्रकार अनुभव मंडप - देह के विविध अंग की भांति सुशोभित हुए। उन सब का निवासास्थान "महामने उन्हीं के हृदय जैसा विशाल था। जो भी आये वहाँ उनको आश्रय देने की उदारता के कारण वह "दासोह" का केन्द्र बना था । "अन्नदासोह" के साथ ही "ज्ञानदासोह" का अनुभव भी मंडप में होता था। “अनुभव मंडप” नाम क्यों रखा ? ऐसी आलोचना करने से कई है । " विचार स्पष्टता से दृष्टिगत होते हैं। 'भगवान पर विश्वास ही बसव तत्व का मूलाधार इस विश्वास की नींव पर ही शेष सब सिद्धांत निरूपित हुए हैं। वह भगवान वचन, मन से परे होता हैं, प्रत्यक्ष अनुमान, आगम, प्रमाणों से परे होकर केवल हृदयंगम है। भगवान के साक्षात्कार के लिए एकमात्र सूत्र है दिव्यानुभव। इसलिए धर्म के मूल अनुभव की नींव पर ही "मंडप' का निर्माण होना चाहिए। यही श्रीगुरु बसवेश्वर की अपेक्षा थी ।
भंडार (धनागार) के दुरपयोग का आरोप
जिस प्रकार मधुमक्कियाँ सब ओर से उड़ती पुष्पवाटिका में आती हैं उसी प्रकार अंग, वंग, कलिंग, गुर्जर, ब्रह्मदेश, काश्मीर, सिंहल से मुमुक्षु कल्याण में आये ; श्रीबसवेश्वर के दिव्य भव्य व्यक्तित्व की शरण में आये और उनके तत्वों से आकर्षित होकर कल्याण में ही रह गये। बसवधर्म की स्वीकृति के पश्चात् अनुभव मंडप के धर्म प्रचारक बनकर वे देश तथा नगर के विविध भागों में संचार करके धर्म प्रचार के मार्गदर्शन करने से अछूत, शूद्र, दीन-दलित सभी अनुभव -मंडप में आकर अपने जीवन को सुधारने लगे।
हरिहर के मतानुसार बसव के अनुयायी "पेट भर भोजन करते; तन भर कपड़े ओडते हैं। ये इनके वैयक्तिक हो तो दासोह, समाज सेवा आदि आर्थिक कायक्रमों में भी भाग लेते हैं । प्रतिदिन अनुभव मंडप का संदर्शन करते हैं। ज्ञान गोष्ठियों में भाग लेते हैं ।" ऐसे सुधारित संतृप्त जन जीवन बिताने की रीति को देखकर कोण्डी मंचण्णा तथा अन्य अनेक राजकीय सहोद्योगियों में जलन हुई। श्रीबसवेश्वरजी के ऊपर किसी तरह का अपराध लादकर अधिकार से निकालने की तरकीब करने लगे ।
उन्होंने राजा बिज्जल से शिकायत की कि दिन भर परिश्रम करने पर भी गरीबी नहीं हटती है। फिर बसवेश्वरजी को धन कहाँ से आता है ? ऐसे सुख-संपत्ति का जीवन बिताने का रहस्य है आप ही का खजाना। बिज्जलने संशयग्रस्त होकर पूछताछ करने बसवेश्वर को बुला भेजा। राजा चुगलखोरों की बातों पर कितने शीघ्र विश्वास कर बैठे इस विचार मात्र से व्यथित होकर बसवेश्वरने आय-व्यय का हिसाब, खजाने का धन राजा को सौप दिया।
राजा बिज्जल ने परीक्षा की तो खजाना सहीसलामत और भरपूर था। इसके पहले के सभी वित्त सचिवों के प्रशासन काल से भी अधिक आय की प्राप्ति को देखकर राजा संतुष्ठ हुए। आय-व्यय का हिसाब समर्पक रहा। राजाने बसवेश्वर से पूछा कि बुजुर्ग, मुनीमों के समय में साध्य न होनेवाली समृद्धि को तुमने साध्य किया है। इस कीर्ति का क्या रहस्य है ?
"बिज्जल महाराज-" कायक ही कैलास नामक मंत्र में है इस कीर्ति का रहस्य । पृथ्वी वैभवशाली है, अति उदार है। जितना परिश्रम करे उतना फल देती है। भगवान ने खाने के लिए सिर्फ मुँह ही नहीं दिया है। खाने के लिए मुँह दिया है तो परिश्रम करने के लिए दो हाथ भी दिये हैं। यदि मनुष्य अपनी आवश्यकता से अधिक उपार्जन करे तो समृद्धि स्वाभाविक ही है। आलसी से कई तरह के कष्ट पैदा होते हैं। मेरे अनुयायी कोई भी रहे वे सब नियम से कायक करते हैं। मेरा सिद्धांत है कि " व्रत की भूल सहन कर सकते है न कि काय की भूल का" इसलिए कायक (कर्म) श्रद्धा ही हमारे देश की प्रगति का महामंत्र है। दूसरा है कि कायक (परिश्रम) से जो धन मिलता है उसमें से अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए कनिष्ठ प्रमाण में रखकर बाकी को दासोह के द्वारा दूसरों को देते हैं । अब लोगों में खजाने को इमान्दारी से मालगुजारी देने की प्रज्ञा उत्पन्न हुई है । शरण केवल शुद्ध, सात्विक जीवन ही नहीं बिताते बल्कि लोगों में शिक्षा के माध्यम से इस तरह का भाव भी पैदा करते हैं। इस कारण देशने सर्वांगीण रूप से अद्भुत प्रगति और विशेष कीर्ति की है।
"ओह, बसवेश्वर मैं कैसा विचित्र व्यक्ति हूँ । मैंने चुगलखोरों की बातों में आकर आप जैसे महापुरुषों पर संदेह किया ; इसके लिए क्षमा चाहता हूँ।”
"उसे वहीं पर रहने दीजिए महाराज ! "
गाँव के सामने जब दूध की नदी बह रही है
तो बाँझ गाय के पीछे क्यों भागूँ?
निर्लज्ज होने की क्या बात? बेशर्मी की क्या बात?
जबतक कूडलसंगमदेव साथ हैं
बिज्जळ का राजभण्डार मुझे क्यों चाहिए? / 76 [1]
मैं इस सिद्धांत का पालन करता हूँ। मेरे भक्त भी ऐसे ही हैं। उन्होंने भी अत्यंत इमान्दारी के प्रति सौगन्ध खायी है । वे किसी तरह धन संचय करके, कहीं तीर्थ क्षेत्रों में घूमकर, नदी-तालाबों में डुबकियाँ लगाकर पाप हरण चाहनेवाले नहीं हैं। इन्हें विश्वास है कि शुद्ध प्रामाणिक व्यवहार ही पूजा है, कायक ही कैलास है। यदि समृद्धि, संतृप्ति उनमें हैं तो उनके स्वयं के कायक (उद्योग) पर भी है
"बसवेश्वर" मैं सच्चे हृदय से क्षमा मांगता हूँ । इसके अतिरिक्त एक निवेदन आप के सामने प्रस्तुत करता हूँ । आप के ससुर को स्वर्गस्थ हुए पर्याप्त समय बीत गया है । उस स्थान की नियुक्ति के लिए योग्य व्यक्ति के न मिलने के कारण उसे रिक्त ही रख छोड़ा है। अब मुझे ज्ञात हो गया है कि अधिकार के लिए तरसनेवालों से उत्तम काम नहीं होगा। केवल सेवामनोभाव, राष्ट्रप्रज्ञा, प्रजाप्रेम की दृष्टि से अधिकार पर जो आसीन होते हैं उन्हीं से महोन्नत कार्य संभव होगा
'वह सब सही है, महाराज, मैं किसी मनुष्य को खुश करने का कार्य नहीं करूँगा। देश के हित की दृष्ठि से परिश्रम करता हूँ। जब मेरा ऐसा उदात्त आदर्श है, आप यदि अन्य लोगों की चापलूसी की बातों को सुनकर मुझ पर संदेह करें तो मेरे मन को ठेस लगेगी। मैने सेवा करने का साधन मानकर उस अधिकार को स्वीकार किया न कि अधिकारसे चिपके रहने के लिए।”
महाराज, सार्वजनिक परिशुद्ध सेवा का व्रत धारण करनेवाला मैं भगवान की सौगन्ध खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ -
सुबह उठकर आँखें मलते हुए
मैं अपने पेट के लिए, अपने आभूषणों के लिए,
मैं अपने पत्नी-बच्चों के लिए चिंतित होता हूँ तो
मेरे मन के लिए, मेरा मन ही साक्षी है,
‘आसने शयने याने संपर्क सहभोजने।
संचरंति महाघोरे नरके कालमक्षयम् ।।’
नाम की श्रुति बसवण्णा पढ़ता है, ऐसा कहते हैं।
भवि बिज्जळ के सिंहासन के नीचे बैठकर
सेवा करता हूँ- ऐसा कहते हैं प्रमथगण,
क्या उनको उत्तर दे सकता हूँ? नहीं नहीं,
अस्पृश्यों के घर में जाकर भी
अच्छी मजूरी करके भी क्यों न हो,
आपके विचारों के आचरण के लिए चिंतित होता हूँ,
अपने पेट के लिए यदि चिंतित होता हूँ।
तो सिर मेरा ले लीजिए
हे! कुडलसंगमदेव। / 421 [1]
प्रभु, सार्वजनिक सेवा व्रतधारी का जीवन शुभ्र धवल वस्त्र के समान होता है। बहुत ही सावधानी से उसकी रक्षा करनी है। उसी तरह मैं प्रमाणिकता, तत्वनिष्ठा से अपने जीवन की रक्षा करता हूँ । स्वर्ण में से एक रेखा, अन्न में से एक दाना, वस्त्र में से एक धागा, कल के लिए, परसों के लिए छिपा रखूँ तो, तुम्हारी सौगन्ध, शरणों की सौगन्ध ।
इतना ही नहीं। अपने तन, मन, धन को सौंपकर आप की सेवा करूँगा । इसका कारण है कि आप को श्रेष्ठ व्यक्ति मानकर नहीं बल्कि देश का राज करनेवाली प्रभुशक्ति मानकर सेवा रत हूँ । राष्ट्र के कार्य में जो भी आवश्यक हो मैं दृढ मन से उसके लिए परिश्रम करूँगा
चोरी के लिए यदि निकले आप
मैं सुराख के लिए छेनी लूँगा आप बंदित हों
आप तो पहले मैं बंदित होऊँगा आप
आप की कसम आप के प्रमथों की कसम
शासक के सदाचार व्यवहार को ही न कहूँ अपना
कट जाय मेरा सिर घन कूडलसंगमदेव ॥
"हमारे देश के प्रयोजनार्थ कोई भी कार्य आप करें और यहाँ तक कि देश के निमित्त चोरी भी करें मैं आप से भी पहले सुराख लगाने छेनी लेकर आगे बढूँगा। प्रजा हित के लिए आप बन्धित हो जायें तो आप से भी पहले मैं बन्धित हो जाऊँगा । त्याग करने में तिल भर भी पीछे नहीं हदूंगा। राष्ट्र के प्रशासन करनेवाली प्रभु शक्ति का गौर हत्पूर्वक करूँगा ।
बसवेश्वर की यह तत्वनिष्ठा, राष्ट्रप्रेम की इन बातों को सुनकर बिज्जल आनंदित हुआ। उन्हें मंत्री का मुकुट पहनाया। अधिकार का प्रतीक तलवार सौंपकर बसवेश्वर को प्रेम से आलिंगन करके राजाने आनंद बाष्प की वृष्टि की।
अपने ऊपर बिज्जल की इस ममता को देखकर बसवेश्वर मूक हुए। बिजली के समान उन पर जो आरोप लगा था वह फूल की तरह बदलकर उनकी कीर्ति-प्रगति का सहायक बना। इस दैवलीला को देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। जो विष बनकर आया था वह अमृत बन गया । आग्रह अभिमान में बदल गया। आरोप अभिनंदित हो गया। यह कैसा अद्भुत दैवानुग्रह कहकर बसव के मुख से वचन "निकल पड़ा-
आप प्रसन्न हो तो ठूँठ में निकलेगा अंकुर
आप प्रसन्न हो तो बाँझ गाय बन जायेगी दुधारूँ।
आप प्रसन्न हो तो विष सब अमृत बन जायेगा
आप प्रसन्न हो तो सब कुछ
सम्मुख प्राप्त हो जायेंगे कूडलसंगमदेव। / 256 [1]
बिज्जल का अत्यधिक अभिमान श्रीबसवेश्वर के ऊपर व्यक्त होन से चुगलखोरों के मुख पीले पड़ गये। उन्होंने साँप फेंका था पर वह बसवेश्वर के गले में फूलमाला हो गया। वे सब दिग्भ्रांत हुए। बिज्जल बोले ...
"बसवेश्वरजी आप को मैं न्याय दंड देने का अधिकार देता हूँ। आप पर मिथ्यारोप करनेवालों को आप जिस तरह चाहे दंड दे सकते हैं ।"
"महाराज ! मेरे जीवन की आकांक्षा है कि दुष्टों का परिवर्तन करना न कि उनका निर्मूलन ! मैं अपेक्षा करता हूँ कि उनका हृदय परिवर्तित हो जाये। मैं आशा करता हूँ वे मुझ को भी समझ पायेंगे "
"आप का औदार्य, क्षमागुण अपार है। आप ज्ञान की संपत्ति ही नहीं बल्कि क्षमागुण की संपत्ति भी है।"
इस प्रकार श्री गुरु बसवेश्वर ने राजसत्ता में उन्नत आसन पर आरूढ हुए।
सन्दर्भ: विश्वगुरु बसवन्ना: भगवान बसवेष्वर के जीवन कथा. लेखिका: डा. पुज्या महा जगद्गुरु माता महादेवी। हिंदी अनुवाद: सी. सदाशिवैया, प्रकाशक: विश्वकल्याण मिशन बेंगलुरु,कर्नाटक. 1980.
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