रत्नकुमार सांभरिया कहानी 'फुलवा' -डॉ संघप्रकाश दुड्डे हिंदी विभाग प्रमुख,संगमेश्वर कॉलेज सोलापुर
रत्नकुमार सांभरिया कहानी 'फुलवा' -डॉ संघप्रकाश दुड्डे हिंदी विभाग प्रमुख,संगमेश्वर कॉलेज सोलापुर
रत्नकुमार सांभरिया जी की कुल बावन कहानियाँ प्रकाशित हैं । उनकी कहानी 'फुलवा' की नायिका फुलवा परिश्रमी, सुशील और सांस्कारिक महिला थी । उसने पापड़ बेलकर अपने लड़के को पढ़ाया था, जो एक बड़ा अफसर बन गया था । बूढ़ी फुलवा शहर में आलीशान कोठी में रहती थी । जब उसके गाँव का जमींदार रामेश्वर उसके घर आया, तो उसने उसका सहर्ष आदर-सत्कार किया । फुलवा के बुलाने पर एक पच्चीस-छब्बीस साल की युवती पानी लेकर आयी । उसे देखकर रामेश्वर ने पूछा, " बहू है तेरी ? " तो फुलवा ने बताया, " नहीं रामेश्वर जी ! बहू नहीं है, नौकरानी है अपनी । कुँवर नाम है उसका । हमने तो आज तक बेचारी से पूछा नहीं, किस जाति का है ? खुद ही कहती है, राजपूत हूँ । गाँव में छत्तीस फाँक हैं । शहर में दो ही जाति होती है, अमीर और गरीब । एक दिन कुँवर आँखों में आँसू भरे गेट के सामने खड़ी सुबक रही थी । जब मैं वहाँ गयी, तो मेरे पाँव पर गिर पड़ी । सिसकियाँ और सुबकियाँ रुक नहीं पा रही थीं उसकी । बोली, अम्मा जी ! दुखिया हूँ, भीख नहीं माँगूँगी । नौकरानी रख लो मुझे । " [122] निःसंदेह 'फुलवा' कहानी की नायिका का चरित्र उत्कृष्ट है और वंचित-वर्ग की स्त्रियों के लिए अनुकरणीय है । सांभरिया जी की कहानी 'बात' की नायिका सुरती ने अपने लड़के को पढ़ाने के लिए धींग नामक धनवान व्यक्ति से कर्ज लिया था । सुरती ने एक बात गिरवी रखी थी कि एक महीने के भीतर यदि वह धींग के रुपये सूद सहित नहीं लौटाती, तो उसे धींग के साथ हमबिस्तर होना पड़ता । लेकिन सुरती ने एक महीने के भीतर सूद सहित पूरे रुपये की व्यवस्था कर ली थी । महीने के अंतिम दिन जब सुरती रुपये की गाँठ खोजने लगी, तो उसे रुपये की गाँठ नहीं मिली, क्योंकि धींग ने चुरा लिया था । सुरती को इस बात का संदेह हो गया था, इसलिए वह धींग के घर पहुँच गयी । सांभरिया जी के शब्दों में, " धींग खाट पर लेटा था, उघड़े बदन । वह गाँठ के छोर को चुटकी से पकड़कर उससे खेल रहा था, पिंजरे में बंद मैना की नाई । नाहर गच्चा खा जाए । बाज चूक जाए । क्रोध झागती सुरती धींग पर बिजली सी टूट पड़ी थी । " [123] सांभरिया जी की इस कहानी की नायिका सुरती चरित्रवान महिला थी, जिसने कर्ज लेकर उसे कठिन परिश्रम करके चुकाना स्वीकार किया, लेकिन कर्ज के बदले किसी गैर-मर्द के साथ शारीरिक संबंध बनाना स्वीकार नहीं किया । सुरती को अन्याय, बेईमानी और धोखा बिल्कुल भी पसंद नहीं था, इसलिए वह धींग से लड़ गयी थी । इस कहानी में सांभरिया जी ने देशकाल का उल्लेख नहीं किया है, जिससे इस कहानी के यथार्थ पर संदेह होता है । सुरती ने साहूकार धींग से तीन सौ रुपये कर्ज लिया था और सूद सहित तीन सौ पंद्रह रुपये चुकाया था । चूँकि यह कहानी वर्ष 2000 के बाद लिखी गयी है, इसलिए यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या वंचित-वर्ग के लोगों की स्थिति इक्कीसवीं सदी में भी इतनी दयनीय है कि एक महिला के लिए एक महीने में तीन सौ पंद्रह रुपये की व्यवस्था करना कठिन हो गया ? 'बिपर सूदर एक कीने' कहानी में सांभरिया जी ने जाति में भी जाति की उत्पत्ति और जातिगत भेदभाव को रेखांकित किया है । चर्मकार जाति के दो भाइयों जीवण लाल और श्यामू लाल में जीवण लाल सूत्रकार था, क्योंकि उसने चमड़े का काम छोड़ दिया था और श्यामू लाल रांपावत था, क्योंकि वह चमड़े का काम करना नहीं छोड़ा था । श्यामू चमड़े का काम इसलिए नहीं छोड़ा, क्योंकि वह लंगड़ा था और अपने लड़के को शहर में पढ़ा रहा था । वह दूसरा व्यवसाय करने में असमर्थ था, इसलिए जब गाँव की पंचायत में गंगाजली उठाने को कहा गया, तो श्यामू नहीं उठाया । परिणामस्वरूप वह बेजात हो गया तथा उसका हुक्का-पानी बंद हो गया । कहानी के अंत में श्यामू के अफसर लड़के द्वारा रह भेदभाव समाप्त किया गया और कहानीकार के शब्दों में 'विप्र-शूद्र' एक हुये, क्योंकि अफसर होने के कारण पुजारी का साला उसे अपना दामाद बनाने के लिए तैयार हो गया था । सांभरिया जी के शब्दों में, " मुँह दर मुँह यह बात समूची सूत्रकार बिरादरी में फैल गयी थी कि पुजारी और उसका साला बिरादरी बाहर श्यामूलाल की खुरेड़ी खाट पर बैठे उसके साथ हुक्का पी रहे हैं । " [124] इस कहानी में सांभरिया जी ने सरकारी नौकरी और बड़े पद तथा शिक्षा के महत्व को व्यक्त किया है, लेकिन उनका यह कथन कि 'आदमी संघर्ष पर उतारू हो जाए, तो लक्ष्मी कदमों पर आ गिरती है' तथा गंगाजली उठाने का प्रसंग आदि उनकी हिंदूवादी मानसिकता का परिचय देते हैं ।
सांभरिया जी की कहानियाँ संघर्ष शिक्षा, सदाचार, समता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व और प्रेम की पक्षधर प्रतीत होती हैं । उनकी कहानियाँ जीवन-मूल्यों का अनुपालन करने की प्रेरणा देती हैं । इस संदर्भ में डॉ० धूलचंद मीणा ने लिखा है, " कथाकार सांभरिया संक्रमण के इस दौर में भी जीवन-मूल्य, आदर्श, मान-मर्यादा व परंपरा को जीवंत रखने के लिए अपनी लेखनी बेबाक व सशक्त तरीके से चला रहे हैं । वैश्वीकरण के दौर में समाज का वास्तविक चेहरा भी विषाक्त हो चुका है । व्यक्ति अपने आपको खोता-सा नजर आ रहा है । वह अपनी जड़ों से ही कट रहा है । सांभरिया ने समाज के जीवन-मूल्यों व आदर्शों की पैरवी ही नहीं की है, अपितु वे समाज के सजग प्रहरी भी हैं । कथाकार ने समाज की आस्थाओं, लोक-संस्कृति को जीवंत व अक्षुण्ण रखा है । " [125] डॉ० मीणा के इस कथन की अंतिम पंक्ति को यदि सही मान लिया जाए, तो सांभरिया जी ने समाज की आस्थाओं यानी परंपराओं का संरक्षण किया है अर्थात हिंदू धर्म का पोषण किया है । लोक संस्कृति को जीवंत रखना भी कोई बहुत अच्छा काम नहीं है, क्योंकि होली, दीवाली, तीज-त्यौहार आदि से संबंधित अनेक विसंगति और विडंबना से परिपूर्ण रीत-रिवाज लोक-संस्कृति के ही अंग हैं । सांभरिया जी की कहानियों में सतही तौर पर आंबेडकरवादी चेतना की अनेक विशेषताएँ लक्षित होती हैं, लेकिन आंबेडकरवादी कहानी के लिए केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है । आंबेडकरवादी कहानी में आंबेडकरवादी शब्दावली, पात्रों का आंबेडकरवादी आंदोलन से जुड़ाव, बौद्घ संस्कारों का क्रियान्वयन, हिंदू धर्म संबंधी आडंबरों का विरोध आदि का समावेश होना अनिवार्य है । फिर भी, सांभरिया जी की कहानियाँ नकली आंबेडकरवादी कहानीकारों की कहानियों की अपेक्षा उत्कृष्ट हैं । सांभरिया जी स्वयं को आंबेडकरवादी कहानीकार घोषित करते रहे हैं, लेकिन वे पूर्णतः आंबेडकरवादी कहानीकार नहीं है । इस संदर्भ में कँवल भारती जी ने लिखा है, " किंतु 2010 आते-आते सांभरिया 'दलित' शब्द को भी स्वीकार करने लगे और दलित विमर्श भी करने लगे । (घासवाली के संकलन के बहाने दलित-विमर्श, लमही, अक्टूबर-दिसंबर 2009) दलित आलोचक के रूप में वह 'मुंशी प्रेमचंद और दलित समाज' (2011) में प्रेमचंद की कहानियों की आलोचना करते हैं और अपने अगले कथा-संग्रह का नाम भी 'दलित समाज की कहानियाँ' (2011) रखते हैं । इसके प्राक्कथन में वह दलित कथाकारों का बौद्धिक नेतृत्व करते हुए उन्हें कहानी का 'क' 'ख' 'ग' पढ़ाते हैं । लेकिन सबसे बड़ी बात है कि वह दलित कहानी को स्वीकार करते हैं । ... सांभरिया प्रेमचंद के कटु आलोचक हैं । परंतु उन पर सबसे अधिक प्रेमचंद का ही प्रभाव है । वह प्रेमचंद की ही गाँव-गँवई की बानी-बोली में कहानियाँ लिखते हैं और उन्हीं की शैली में प्रस्तुत करते हैं । वह दलित पात्रों के नाम भी उसी तरह रखते हैं, जैसे प्रेमचंद रखते थे - मिनखू, पूछा, मालू, मल्ली, कालू, रूना, लूना, बिल्लो आदि । " [126] स्पष्ट है कि रत्नकुमार सांभरिया जी आरंभ में स्वयं को आंबेडकरवादी कहानीकार कहते रहे तथा 'दलित' शब्द और दलित-साहित्य का विरोध करते रहे, लेकिन अंत में उन्होंने 'दलित' शब्द को अंगीकार कर लिया और स्वयं को दलित कहानीकार भी कहने लगे । इस प्रकार उन्होंने महत्वाकांक्षा और प्रसिद्धि के लोभ में अपनी विचारधारा से विचलित होकर समझौता किया । ध्यातव्य है कि अपने संकल्प से डिगने वाला समझौतावादी व्यक्ति आंबेडकरवादी नहीं कहा जाता है । सांभरिया जी ने अपने पात्रों का नाम भी विकृत और हिंदू नाम रखा है । वे भले ही परंपरा का विरोध करने का ढोंग करते हों, लेकिन वास्तव में उन्होंने अपनी कहानियों में परंपरा का खुलकर विरोध नहीं किया है । अतः रत्नकुमार सांभरिया जी आंशिक रूप से ही आंबेडकरवादी चेतना के कहानीकार हैं ।
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