संत साहित्य और लोकमंगल भावना-डॉ संघप्रकाश दुड्डे सोलापुर

संत साहित्य और लोकमंगल भावना-
डॉ संघप्रकाश दुड्डे
संगमेश्वर कॉलेज सोलापुर,9766997174,smdudde@gmail.com
संत साहित्य और लोकमंगल भावना के बीच गहरा संबंध है। संत साहित्य भारतीय साहित्य का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें भक्ति, आध्यात्मिकता, और मानवता के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को बायां गया है। यह साहित्य आम लोगों के जीवन के मुद्दों और उनकी आध्यात्मिक भावना के साथ जुड़ा हुआ है।संत साहित्य में विभिन्न संतों की रचनाएँ शामिल हैं, जैसे कबीर, मीराबाई, सूरदास, नामदेव, तुकाराम, और बहुत से अन्य। ये संत साहित्यकार अपनी कविताओं, भजनों, और ग्रंथों के माध्यम से भगवान, प्रेम, और मानवता के महत्वपूर्ण संदेशों को साझा करते थे। उनके रचनाकार्यों में भक्ति और भाग्य के प्रति गहरा स्नेह होता था।लोकमंगल भावना संत साहित्य की एक महत्वपूर्ण भाग है, जिसमें लोगों की सामाजिक, आध्यात्मिक, और भावनात्मक जरूरतों को समझाने का प्रयास किया जाता है। यह संत साहित्य के संदेशों को आम लोगों तक पहुंचाने का माध्यम होता है और उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाता है। इसका यह मतलब नहीं है कि यह साहित्य केवल धार्मिक होता है, बल्कि यह सभी पहलुओं को समाहित करने का प्रयास करता है, जिससे जनता के बीच लोकमंगल भावना को बढ़ावा मिलता है।संत साहित्य और लोकमंगल भावना एक साथ काम करके मानवता के मूल्यों, नैतिकता, और धार्मिकता को प्रमोट करते हैं, और लोगों के मानसिक औरसंत साहित्य और लोकमंगल भावना दो महत्वपूर्ण और साथ-साथ चलने वाले शास्त्रीय भारतीय साहित्य के हिस्से हैं।संत साहित्य: संत साहित्य भारतीय साहित्य का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें भक्ति, धर्म, और आध्यात्मिकता के मुद्दे होते हैं। संत साहित्य में संतों की अनुभव, आध्यात्मिक ग्यान, और भक्ति का व्यक्तिगत अभिव्यक्ति होता है। इसमें संतों के भक्तों के साथ उनके भगवान के प्रति अद्भुत प्रेम की भावना भी बयां की जाती है। काबीर, मीराबाई, सूरदास, नामदेव, तुलसीदास, और सांत तुकाराम जैसे संतों की रचनाएँ संत साहित्य के प्रमुख उदाहरण हैं।लोकमंगल भावना: लोकमंगल भावना उस भावना की ओर हिंदी साहित्य के एक विशेष पहलू को सूचित करता है जिसमें लोगों की समाज में शांति, सौभाग्य, और सामाजिक हित की भावना होती है। इसमें सामाजिक न्याय, समाज सुधार, और सामाजिक सरोकार के मुद्दे होते हैं। इसका लक्ष्य समाज के समृद्धि और सुधार की प्रोत्साहना करना है। संत साहित्य और लोकमंगल भावना, दोनों हिंदी साहित्य के अमूल्य हिस्से हैं, जो भारतीय सामाजिक, आध्यात्मिक, और साहित्यिक धारा के विकास में महत्व रखते हैंसंत साहित्य और नीति तत्व, दोनों ही भारतीय साहित्य के महत्वपूर्ण हिस्से हैं, और वे सामाजिक, आध्यात्मिक और नैतिक उपदेश का स्रोत हैं।
संत साहित्य: संत साहित्य में आध्यात्मिकता और धार्मिक उपदेश के महत्वपूर्ण सिद्धांत होते हैं। संत साहित्य के कविताएं, भजन, और ग्रंथ संतों के आध्यात्मिक अनुभव का प्रतिबिम्ब करते हैं और मानवता, समर्पण, और ईश्वर के प्रति प्रेम की महत्वपूर्ण भावनाओं को प्रकट करते हैं। इस संत साहित्य में लोक कल्याण की मंगल भावना महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। संत साहित्य के कविताएं, भजन, और ग्रंथ लोक कल्याण और मानव समाज के सुधार के लिए उत्साहवर्धक होते हैं।संत साहित्य के मुख्य संदेशों में निम्नलिखित माहत्म्य होता है:समाज में सामाजिक न्याय: संत साहित्य में सामाजिक न्याय की मांग की जाती है। यह कविताएं और भजन सामाजिक वर्गों के बीच समानता, भ्रातृता, और न्याय की महत्वपूर्ण भावनाओं को प्रकट करते हैं।
आध्यात्मिकता: संत साहित्य में आध्यात्मिक उन्नति की मंगल भावना होती है। यह उपासना, मानवता, और भगवान के प्रति प्रेम की भावना को बढ़ावा देता है और लोगों को आध्यात्मिक समृद्धि की ओर प्रोत्साहित करता है।
सेवा और समर्पण: संत साहित्य में सेवा और समर्पण की मंगल भावना होती है। यह कविताएं और ग्रंथ सेवा के महत्व को बताते हैं और लोगों को दूसरों की मदद करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।मानवता: संत साहित्य में मानवता की मंगल भावना उजागर होती है। यह लोगों के अंदर भगवान की उपस्थिति को महसूस कराता है और उन्हें दूसरों के साथ उद्देश्यपूर्ण और मानवीय जीवन जीने के लिए प्रोत्साहित करता है।संत साहित्य में इन मांगल भावनाओं का समावेश होता है और यह लोगों को उनके आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन में मार्गदर्शन प्रदान करता है।संत साहित्य में लोक कल्याण की मंगल भावना एक महत्वपूर्ण अंश है। संत साहित्य के कविताएं, भजन, और उपदेश आम जनता के भलाई और समृद्धि के लिए होते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य समाज में न्याय, समर्पण, और सामाजिक सरोकार की प्रोत्साहना करना होता है।
संत साहित्य में लोक कल्याण की मंगल भावना कुछ मुख्य रूपों में प्रकट होती है:समाजिक न्याय: संत साहित्य में समाज में न्याय की मंगल भावना होती है। संतों ने समाज में जातिवाद, भेदभाव और अन्य अनैतिकता के खिलाफ आवाज उठाई है और समाज में समानता और न्याय की ओर प्रोत्साहित किया है।समर्पण और भक्ति: संत साहित्य में ईश्वर के प्रति समर्पण और भक्ति की मंगल भावना होती है। संत साहित्य में लोगों को आध्यात्मिक दिशा में जाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और उन्हें ईश्वर के प्रति समर्पित रहने का संदेश दिया जाता है।संत साहित्य में विश्व कल्याण की भावना एक महत्वपूर्ण तत्व है। संत साहित्य के कविताएं, भजन, और उपदेश में विश्व के सभी मानवों के उत्थान और कल्याण के लिए जागरूकता और प्रेरणा होती है। यह भावना संतों के उपदेश का महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसमें कई प्रमुख पहलू शामिल होते हैं:एकता की भावना: संत साहित्य में विश्व कल्याण की भावना से जुड़ी होती है, और यह बताता है कि हम सभी मानव एक हैं और हमें एक साथ रहकर एकता और साहचर्य की भावना बनानी चाहिए।
सहानुभूति: संत साहित्य में विश्व कल्याण की भावना से यह सिखाया जाता है कि हमें दूसरों के दुख और सुख को समझना चाहिए और दूसरों के साथ सहानुभूति दिखानी चाहिए।सेवा और उपकार: संत साहित्य के माध्यम से विश्व कल्याण की भावना से यह सिखाया जाता है कि हमें अन्यों की सेवा करनी चाहिए और उनके उत्थान के लिए योगदान करना चाहिए।धार्मिक समझ: संत साहित्य में विश्व कल्याण की भावना से जुड़ी होती है, और यह सिखाता है कि धर्म और आध्यात्मिकता के माध्यम से हम अच्छे काम करके अपना और दूसरों का कल्याण कर सकते हैं।
संत साहित्य में विश्व कल्याण की भावना भारतीय साहित्य और सामाजिक धारा के महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में मौजूद होती है, और यह मानवता के समृद्धि और सुधार की ओर प्रोत्साहित करती है।संत साहित्य में विश्व कल्याण की भावना महत्वपूर्ण हिस्सा है। संत साहित्य के कविताएं, भजन, और उपदेश आध्यात्मिक एकता, शांति, और सर्वत्र सुखमंगल की भावना को प्रकट करते हैं।
विश्व कल्याण का सन्देश: संत साहित्य के अनुसार, सभी मानव एक परमात्मा के बच्चे हैं और इसलिए सभी को एक-दूसरे के साथ एकता और प्यार में रहना चाहिए। यह विश्व कल्याण की भावना को प्रोत्साहित करता है और सभी मानवों के सुखमंगल की ओर प्रोत्साहित करता है।
धर्मिक एकता: संत साहित्य में धर्मिक एकता की मंगल भावना होती है, जिसमें सभी धर्मों के प्रति समर्पण और समान भावना होती है। संत साहित्य के अनुसार, भगवान के लिए भक्ति और धर्म केवल एक है, और यह विश्व के लोगों को साथ लाने का साधना करता है।
सर्वत्र सुखमंगल: संत साहित्य में सर्वत्र सुखमंगल की भावना होती है, जिसमें सभी को सुखमंगल और शांति की खोज में होने का संदेश होता है। संत साहित्य के अनुसार, सच्चा सुख केवल संत साहित्य में शांति की भावना एक महत्वपूर्ण और सुंदर अंश है। संत साहित्य के कविताएं, भजन, और उपदेश आत्मशांति, आंतरिक शांति, और समाज में शांति की महत्वपूर्ण भावना को प्रकट करते हैं। इसके पीछे कुछ मुख्य कारक होते हैं:आध्यात्मिक शांति: संत साहित्य में शांति की भावना अक्सर आध्यात्मिक विकास और मानवता के प्रति समर्पण से जुड़ी होती है। संत अपने कविताओं और उपदेशों के माध्यम से मानव को आत्मशांति की ओर प्रोत्साहित करते हैं।सामाजिक शांति: संत साहित्य में सामाजिक शांति की भावना भी प्रमुख होती है। संतों के उपदेश और भजन सामाजिक असहमति, भेदभाव, और संघर्ष के खिलाफ उत्कृष्ट विचार प्रस्तुत करते हैं, और समाज में सामंजस्य और शांति की महत्वपूर्ण भावना को बढ़ावा देते हैं।आंतरिक शांति: संत साहित्य का मुख्य उद्देश्य आंतरिक शांति और मानव के आत्मा की ऊर्जा को शांति की दिशा में प्रेषित करना है। संत साहित्य आत्मा की शांति और स्मृति की महत्वपूर्ण भावना को प्रकट करते हैं।इस प्रकार, संत साहित्य मानव और समाज के लिए शांति, समर्पण, और आत्मशांति की महत्वपूर्ण भावना को प्रकट करता है।संत साहित्य में शांति की भावना महत्वपूर्ण हिस्सा है। संत साहित्य के भजन, कविताएं, और उपदेश में आध्यात्मिक शांति की महत्वपूर्ण भावना होती है, जो व्यक्ति को आत्मिक शांति और समाज में शांति की ओर प्रोत्साहित करती है।आत्मिक शांति: संत साहित्य में, आध्यात्मिक शांति की महत्वपूर्ण भावना होती है। संत साहित्य के कविताएं और उपदेश आत्मा की शांति के लिए आध्यात्मिक अभ्यास की महत्वपूर्णता को हाथ में लेते हैं और व्यक्ति को अपने आप को पाकर आत्मिक शांति प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।समाज में शांति: संत साहित्य में समाज में शांति की भावना होती है। संतों के उपदेश और कविताएं लोगों को अपने जीवन में समर्पण, सहमति, और सामंजस्य की ओर प्रोत्साहित करते हैं, जिससे समाज में शांति और सहमति होती है।आध्यात्म संत साहित्य में निर्गुण ईश्वर का विशेष महत्व है। निर्गुण ईश्वर का अर्थ होता है कि वह ईश्वर जो गुणों से परे है, अद्वितीय है, और बिना गुणों के है। इसका मतलब है कि वह ईश्वर सबके भीतर है, और उसका स्वरूप अतींद्रिय और अपूर्व है।संत साहित्य में निर्गुण ईश्वर की भावना ने आध्यात्मिक अन्वेषण को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया है। कुछ महान संत, जैसे कि संकराचार्य, कबीर, गोरखनाथ, नामदेव, और मीराबाई, ने निर्गुण ईश्वर के प्रति अपने भक्ति और आध्यात्मिक अनुभवों का साक्षर दिया है।
इन संतों के काव्य, भजन, और उपदेश में, वे निर्गुण ईश्वर के साथ अपने आत्मा की एकता का विवरण करते हैं और लोगों को ईश्वरीय प्रेम और सच्चे आत्मा के खोज में प्रोत्साहित करते हैं। इन संतों के द्वारा उपदेश दिया गया है कि निर्गुण ईश्वर को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को आपने आत्मा को जानने और समर्पित करने की आवश्यकता है।
संत साहित्य में "निर्गुण ईश्वर" की भावना महत्वपूर्ण है। यह भावना एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण है जिसमें परमात्मा या ईश्वर को सगुण और निर्गुण रूपों में विचार किया जाता है। निर्गुण ईश्वर की भावना मुख्य रूप से निर्गुण भक्ति के संतों द्वारा प्रतिपादित की गई है, और इसका महत्वपूर्ण हिस्सा संत साहित्य में पाया जाता है।निर्गुण ईश्वर की भावना के कुछ मुख्य प्रमुख आदान-प्रदान हैं:अद्वैत वाद: निर्गुण भक्ति के संत आध्यात्मिक एकता या अद्वैत की महत्वपूर्ण भावना के पक्षधर होते हैं। वे यह मानते हैं कि परमात्मा और आत्मा में कोई भिन्नता नहीं है और सभी मानव एक ही ब्रह्म में एकता प्राप्त कर सकते हैं।
निर्गुण भक्ति: निर्गुण ईश्वर की भावना से जुड़े संत अक्सर निर्गुण भक्ति का अभ्यास करते हैं, जिसमें वे सगुण रूप के ईश्वर की पूजा के बजाय परमात्मा की अनुभवशील अभ्यास का परिचय कराते हैं।दुर्बलता का समापन: निर्गुण भक्ति के संतों के अनुसार, दुर्बलता और मानसिक अस्थिरता का समापन निर्गुण ईश्वर के साथ मिलकर होता है। वे यह मानते हैं कि निर्गुण ईश्वर की शक्ति और आत्मा की शक्ति के मेल से व्यक्ति अद्वैत और निर्विकल्प स्थिति की प्राप्ति करते हैं।निर्गुण ईश्वर की भावना संत साहित्य में आत्मा की आध्यात्मिक खोज और आत्मा के एकता की महत्वपूर्ण भावना का प्रतीक होती है, जो आध्यात्मिक साधना का महत्वपूर्ण हिस्सा है।संत साहित्य में "अहिंसा" का महत्वपूर्ण स्थान होता है। यह आध्यात्मिक साहित्य का महत्वपूर्ण भाग है और इसमें अहिंसा के महत्व को समझाने और प्रमोट करने की भावना होती है।अहिंसा का महत्व: संत साहित्य में समय-समय पर अहिंसा के महत्व को बताया जाता है। संत साहित्य के कविताएं और उपदेश लोगों को यह सिखाते हैं कि अहिंसा सच्चे आध्यात्मिक जीवन का हिस्सा होनी चाहिए।
अहिंसा का अभ्यास: संत साहित्य में, अहिंसा के अभ्यास का महत्व बताया जाता है। संत अपने उपदेशों में और अपने आत्मा के आध्यात्मिक विकास के साथ अहिंसा का अभ्यास करने की महत्वपूर्णता को प्रमोट करते हैं।
सहानुभूति और समर्पण: संत साहित्य में अहिंसा का मतलब न केवल शारीरिक हिंसा से बचाव है, बल्कि यह भी है कि आप दूसरों के प्रति सहानुभूति और समर्पण दिखाएं। संत साहित्य के माध्यम से लोगों को सहानुभूति की भावना और अहिंसा के माध्यम से अपने आत्मा का पुनर्निर्माण करने की प्रेरणा मिलती है।संत साहित्य अहिंसा को एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक और सामाजिक मूल्य के रूप में प्रमोट करता है और लोगों को अपने आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन में इसे अपनाने की प्रेरणा देता है।संत साहित्य में अहिंसा की महत्वपूर्ण भावना होती है। अहिंसा एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक और नैतिक सिद्धांत है जो संत साहित्य के कई प्रमुख आदान-प्रदान में होता है। निम्नलिखित कुछ तत्व संत साहित्य में अहिंसा के महत्व को प्रकट करते हैं:जीवों का समर्पण: संत साहित्य में आहार और जीवों के साथ सहमति का सिद्धांत महत्वपूर्ण होता है। संत साधक अहिंसा का पालन करते हैं और अन्य जीवों के प्रति सहानुभूति और प्रेम दिखाते हैं.अंधकार से प्रकाश की ओर: संत साहित्य में अहिंसा का अर्थ अंधकार और अज्ञान से प्रकाश की ओर प्रस्थान करने का है। संत भक्ति के माध्यम से व्यक्ति को अंधकार के संग्रहण से मुक्त करने के लिए आध्यात्मिक ज्ञान का प्रसार करते हैं.सहमति और शांति: संत साहित्य में अहिंसा की भावना से समाज में सहमति और शांति का प्रमोट किया जाता है। यह भावना समाज में सामंजस्य और भाईचारा प्रमोट करती है, जिससे जीवन में शांति और सहमति की भावना होती है.अंतरात्मा की शुद्धि: संत साहित्य में अहिंसा का पालन करके व्यक्ति अपनी अंतरात्मा की शुद्धि करते हैं। इससे उनके मानसिक और आत्मिक विकास में मदद मिलती है.संत साहित्य अधिकतर अहिंसा, प्रेम, और सहमति के सिद्धांतों के प्रशंसक होते हैं, और इसका पालन करने के लिए अपने शिष्यों को प्रोत्साहित करते हैं। इससे व्यक्ति के आत्मिक और सामाजिक विकास में मदद मिलती है और वह समृद्धि और आत्मा की शांति की ओर बढ़ता है।
संत साहित्य में आत्मा की मुक्ति एक महत्वपूर्ण और प्रमुख भावना है। संत साहित्य के सिद्धांत और उनके ग्रंथों में आत्मा की मुक्ति के प्रति गहरी भावना होती है, और वे यह मानते हैं कि मनुष्य की असली प्राथमिकता आत्मा की मुक्ति की दिशा में होनी चाहिए।निम्नलिखित कुछ प्रमुख तत्व संत साहित्य में आत्मा की मुक्ति के सिद्धांत को प्रकट करते हैं:आत्मा का आध्यात्मिक उद्देश्य: संत साहित्य में आत्मा को एक आध्यात्मिक उद्देश्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। वे मानते हैं कि आत्मा की सच्ची मुक्ति ईश्वर के पास पहुंचने में है.भक्ति और सेवा: संत साहित्य में आत्मा की मुक्ति के लिए भक्ति और सेवा की महत्वपूर्ण भावना होती है. संत भक्ति के माध्यम से आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने का प्रमोट करते हैं.आत्मा के दोष और शुद्धि: संत साहित्य में आत्मा के दोषों की जाँच और उनकी शुद्धि के लिए आत्माचिंतन और साधना का महत्वपूर्ण भूमसंत साहित्य में आत्मा की मुक्ति एक महत्वपूर्ण और आध्यात्मिक भावना है। संत साहित्य के संत और महापुरुष आत्मा की मुक्ति को प्राप्त करने की महत्वपूर्ण उद्देश्य मानते हैं और इसके लिए आध्यात्मिक जीवन, भक्ति, और ध्यान के माध्यम से मानव आत्मा को उसकी आदिकृत स्थिति में पुनर्प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।संत साहित्य में आत्मा की मुक्ति से जुड़े कुछ मुख्य तत्व हैं:आत्म-अन्तर-ज्ञान: संत साहित्य के संत अक्सर आत्मा की मुक्ति के लिए आत्म-अन्तर-ज्ञान का विकास करने का महत्वपूर्ण मानते हैं। वे यह मानते हैं कि आत्मा को अपनी आदिकृत स्थिति में पुनर्प्राप्त करने के लिए आत्मा के स्वरूप और दिव्यता का ज्ञान होना आवश्यक है.भक्ति और प्रेम: संत साहित्य में भक्ति और प्रेम के माध्यम से आत्मा की मुक्ति का पथ दिखाया जाता है। संत अपने शिष्यों को प्रेम और भक्ति के साथ भगवान के प्रति आकर्षित होने का प्रोत्साहन देते हैं.अहिंसा और दया: संत साहित्य में अहिंसा की महत्वपूर्ण भावना होती है। अहिंसा और दया के माध्यम से आत्मा की मुक्ति की दिशा में प्रगति की जाती है.आत्म-साक्षात्कार: संत साहित्य में आत्म-साक्षात्कार की महत्वपूर्ण भावना होती है। इसमें व्यक्ति को अपनी आत्मा को और ईश्वर को जानने का अनुभव होता है, जिससे उसका मन, शरीर, और आत्मा मुक्त हो सकते हैं.इन तत्वों के माध्यम से, संत साहित्य मानव आत्मा के मुक्ति की भावनासंत साहित्य में परमात्मा की भावना महत्वपूर्ण होती है। संत साहित्य के संत और महापुरुष परमात्मा को अनुभव करने और उसके साथ एकात्मता प्राप्त करने की महत्वपूर्ण भावना रखते हैं।यहां कुछ मुख्य तत्व हैं जो संत साहित्य में परमात्मा की भावना को प्रकट करते हैं:एकता और एकाग्रता: संत साहित्य के संत अपने शिष्यों को परमात्मा के साथ एक होने की भावना सिखाते हैं। इसका मतलब होता है कि वे परमात्मा को अपने आत्मा के साथ एक मानते हैं और उसकी दिशा में अपनी चेष्टाएं करते हैं।भक्ति और प्रेम: संत साहित्य में परमात्मा के प्रति गहरा प्रेम और भक्ति की भावना होती है। संत अपने शिष्यों को परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना को विकसित करने की सलाह देते हैं.परमात्मा का अनुभव: संत साहित्य के संत अपने आत्मा के माध्यम से परमात्मा का अनुभव करने का मार्ग दिखाते हैं। यह अनुभव आत्मा के परमात्मा के साथ एक होने की अनुभव करने की ओर एक प्रकार की प्राधिकृति होती है.अपनापन और सहयोग: संत साहित्य में परमात्मा के साथ अपनापन की भावना दिखाई जाती है। संत अपने शिष्यों को सिखाते हैं कि परमात्मा हमें हमेशा सहायता करने के लिए उपलब्ध हैं और हमें उसके साथ एक जैसे होने की आवश्यकता है।संत साहित्य में परमात्मा की भावना से जुड़े ये तत्व आध्यात्मिक विकास और आत्मा की मुक्ति की दिशा में महत्वपूर्ण होते हैं, और वे व्यक्ति को आध्यात्मिक साक्षरता और आत्मसंत साहित्य में परमात्मा की भावना महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। संत साहित्य के संत और महापुरुष परमात्मा को एक अद्वितीय और अनन्त शक्ति के रूप में देखते हैं और इस अद्वितीय परमात्मा के साथ अपना सम्पूर्ण जीवन और आत्मा को संबंधित करते हैं।कुछ मुख्य तत्व जो संत साहित्य में परमात्मा की भावना को प्रमोट करते हैं:अनन्तता और अद्वितीयता: संत साहित्य में परमात्मा को अनन्त और अद्वितीय शक्ति के रूप में वर्णित किया जाता है। यह शक्ति सभी जीवों और सभी धर्मों के पालने वाले के अंदर होती है और सभी को एकता में मिलाती है.भक्ति और सेवा: संत साहित्य में परमात्मा की प्राप्ति के लिए भक्ति और सेवा का महत्व बताया जाता है। भक्ति और सेवा के माध्यम से व्यक्ति परमात्मा के प्रति अपनी भावना को व्यक्त करता है.दैहिक और अदैहिक अनुभव: संत साहित्य में परमात्मा को प्राप्त करने के लिए दैहिक और अदैहिक अनुभवों का महत्व दिया जाता है। यह अनुभव ध्यान, धारणा, और मनन के माध्यम से होते हैं.परमात्मा की प्रति प्रेम: संत साहित्य में परमात्मा के प्रति अपनी अनगिनत भावनाओं का व्यक्त करने का मौका मिलता है। संत अपनी प्रेम और आस्था के साथ परमात्मा की ओर आकर्षित होते हैं।संत साहित्य के माध्यम से लोग परमात्मा की भावना को समझते हैं और उनके जीवन का माध्यम बनाते हैं, जिससे उनका आत्मा की मुक्ति की दिशा में प्रगति होती है।संत साहित्य में ऐश्वर्या गुण, यानी भगवान की अद्वितीय धन्यता और महत्व की भावना  महत्वपूर्ण  है। यह भावना संत साहित्य के अनेक ग्रंथों और कविताओं में प्रकट होती है और उनके दृष्टिकोण को प्रभावित करती है.संत साहित्य में ऐश्वर्या गुण के कुछ मुख्य पहलू निम्नलिखित हैं:भगवान की अद्वितीयता: संत साहित्य में भगवान को अद्वितीय, अनन्त, और सर्वशक्तिमान रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह भावना उनके लेखन और भजनों के माध्यम से प्रस्तुत होती है.भगवान के प्रति भक्ति और श्रद्धा: संत साहित्य में भगवान के प्रति श्रद्धा और भक्ति के माध्यम से भगवान की महत्वपूर्ण भूमसंत साहित्य में ऐश्वर्या गुण की भावना बड़े महत्वपूर्ण होती है, लेकिन यह गुण भगवान के ऐश्वर्य के साथ अधिकतर आंतरिक ऐश्वर्य को सूचित करता है, जैसे कि भगवान की प्रति श्रद्धा और विश्वास, उनके निर्मल भक्ति, और उनके दिव्य गुणों के प्रति प्रेम.ऐश्वर्या गुण संत साहित्य में निम्नलिखित रूपों में प्रकट होता है:भगवान के ऐश्वर्य के प्रति श्रद्धा: संत साहित्य में श्रद्धा की भावना भगवान के ऐश्वर्य के प्रति होती है। भक्त यह मानते हैं कि भगवान सर्वशक्तिमान हैं और उनके ऐश्वर्य में अपार शक्ति होती है.भक्ति के माध्यम से प्रेम: संत साहित्य में भक्ति और प्रेम के माध्यम से भगवान के प्रति प्रेम को जाहिर किया जाता है. भक्ति और प्रेम की भावना से भक्त भगवान के निकटतम आवास को प्राप्त करते हैं.आंतरिक ध्यान और आत्मा का अध्ययन: संत साहित्य में ऐश्वर्या गुण का महत्वपूर्ण हिस्सा आंतरिक ध्यान और आत्मा के अध्ययन में होता है. इसके माध्यम से व्यक्ति अपने आत्मा के साथ जुड़कर भगवान के अद्वितीयता को अनुभव करता है.दया और सेवा: ऐश्वर्या गुण के अंतर्गत, भक्त अपने धर्म के आदान-प्रदान के माध्यम से सेवा और दया का पालन करते हैं, जिससे उनकी आदर्श जीवन और समाज में सामाजिक सुधार का स्रोत बनते हैं.इस रूप में, संत साहित्य में ऐश्वर्या गुण भक्तों के भगवान के प्रति प्रेम और समर्पण कीसंत साहित्य में मैत्री भावना का महत्वपूर्ण स्थान होता है। मैत्री भावना का अर्थ होता है दोस्ती, सजीव संबंध, और सभी जीवों के प्रति स्नेह और सहानुभूति की भावना। संत साहित्य में मैत्री का महत्व समाज में सामाजिक एकता, शांति, और सहयोग की भावना को प्रमोट करने में होता है।कुछ मुख्य तत्व जो संत साहित्य में मैत्री भावना को प्रमोट करते हैं:समाज में एकता: संत साहित्य में मैत्री भावना के माध्यम से समाज में सामाजिक और धार्मिक एकता की महत्वपूर्ण भावना को उत्कृष्टता से प्रकट किया जाता है. संत अपने शिष्यों को सभी मानवों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने की सलाह देते हैं.दया और सहानुभूति: संत साहित्य में मैत्री भावना के माध्यम से दया और सहानुभूति की भावना को प्रमोट किया जाता है। संत अपने अनुयायियों से दूसरों के दुखों के प्रति सहानुभूति और मदद करने की सलाह देते हैं.धार्मिक साहित्य में मैत्री: संत साहित्य में धार्मिक मैत्री की महत्वपूर्ण भावना होती है, जिसमें भक्त अपने धर्मिक सहचरों के साथ साथीपन और सामाजिक सामंजस्य की भावना को प्रमोट करते हैं.व्यक्तिगत उन्नति के माध्यम: मैत्री भावना संतों के अनुयायियों के व्यक्तसंत साहित्य में मैत्री (दोस्ती और स्नेह) भावना का महत्वपूर्ण स्थान होता है। संत साहित्य के अध्ययन से हम देख सकते हैं कि संत और महापुरुष मैत्री की भावना को कैसे महत्वपूर्ण मानते हैं और इसे कैसे प्रमोट करते हैं:समाज में एकता और सद्गुण: संत साहित्य में, मैत्री और स्नेह को सामाजिक सद्गुण के रूप में प्रमोट किया जाता है। 
संदर्भ ग्रंथ सूची 
1) हिंदी संत साहित्य- संपादक डॉ संघप्रकाश दुड्डे
2)रामचंद्र, शुक्ल (1941). हिंदी साहित्य का इतिहास. वाराणसी: नागरी प्रचारिणी सभा. पृ॰ 156.
 3) भारतीय संत साहित्य परंपरा-डॉ एस ए मंजूनाथ
4) संत साहित्य संदर्भ कोश-डॉ रमेशचंद्र मिश्र
5)' हिंदी संत साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव शांति स्व
डॉ संघप्रकाश दुड्डे
संगमेश्वर कॉलेज सोलापुर,9766997174,smdudde@gmail.com

 

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