सारे संस्कार अनित्य हैं
अनिच्चा वत संखारा,
उप्पादवय- धम्मिनो।
उपज्जित्वा निरुज्झन्ति,
तेसं वुपसमो सुखो।।
बुद्ध वचन
सचमुच! सारे संस्कार अनित्य ही तो है।
उत्पन्न होने वाली सभी स्थितियां, वस्तु, व्यक्ति अनित्य ही तो है।
उतपन्न होना और नष्ट हो जाना, यह तो इनका धर्म ही है, स्वभाव ही है।
विपश्यना साधना के अभ्यास द्वारा उतपन्न होकर निरुद्ध होने वाले इस प्रपंच का जब पूर्णतया उपशमन हो जाता है- पुनः उत्पन्न होने का क्रम समाप्त हो जाता है, उसी का नाम परम सुख है, वही निर्वाण सुख है।
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