रिपोर्ताज को स्पष्ट कीजिए

रिपोर्ताज गद्य लेखन की एक विशिष्ट विधा है जो पत्रकारिता और साहित्य के बीच एक सशक्त सेतु का कार्य करती है। यह विधा तथ्यों को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करते हुए पाठकों के मन पर गहरा प्रभाव छोड़ने का कार्य करती है।

🔍 रिपोर्ताज: अर्थ, विशेषताएँ, इतिहास और महत्व

📌 रिपोर्ताज का अर्थ एवं परिभाषा

रिपोर्ताज फ्रांसीसी भाषा का शब्द है जो पत्रकारिता और साहित्य की एक सम्मिश्रित विधा है। यह मूलतः "रिपोर्ट" (report) और "मोंताज" (montage) शब्दों के संयोग से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - "रिपोर्ट को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करना"।

महादेवी वर्मा के अनुसार, "रिपोर्ट या विवरण से संबंध रिपोर्ताज समाचार युग की देन है और उसका जन्म सैनिक की खाइयों में हुआ है" । डॉ. भगीरथ मिश्र इसे परिभाषित करते हुए कहते हैं कि "किसी घटना या दृश्य का अत्यंत विवरणपूर्ण सूक्ष्म, रोचक वर्णन इस प्रकार किया जाता है कि वह हमारी आँखों के सामने प्रत्यक्ष हो जाए और हम उससे प्रभावित हो उठें" ।

✨ रिपोर्ताज की प्रमुख विशेषताएँ

1. वास्तविकता पर आधारित: रिपोर्ताज में वर्णित घटना या दृश्य काल्पनिक न होकर वास्तविक होता है ।
2. प्रत्यक्षदर्शी का विवरण: इसमें लेखक द्वारा "आँखों देखा" और "कानों सुना" विवरण प्रस्तुत किया जाता है ।
3. कलात्मक प्रस्तुति: तथ्यों को कलात्मक एवं प्रभावोत्पादक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है ।
4. सामूहिक प्रभाव: इसका मुख्य उद्देश्य सामूहिक प्रभाव उत्पन्न करना होता है ।
5. रोचकता: यह अत्यधिक रोचक तथा मनोरंजक विवरणात्मक शैली में लिखा जाता है ।
6. घटना प्रधान: रिपोर्ताज घटना प्रधान होने के साथ ही कथातत्व से युक्त होता है ।
7. सामाजिक संवेदनशीलता: यह समाज के शोषित, पीड़ित और वंचित वर्गों के जीवन की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करता है ।

📜 रिपोर्ताज का ऐतिहासिक विकास

रिपोर्ताज का उद्भव द्वितीय विश्व युद्ध (1939 ई.) के दौरान माना जाता है । इस विधा का विकास सबसे पहले रूस में हुआ, जहाँ इलिया एहरेनबर्ग जैसे लेखकों ने युद्ध के मोर्चों से साहित्यिक रिपोर्ट्स तैयार कीं ।

हिंदी साहित्य में रिपोर्ताज लेखन की शुरुआत शिवदान सिंह चौहान की रचना 'लक्ष्मीपुरा' (1938) से मानी जाती है, जो 'रूपाभ' पत्रिका में प्रकाशित हुई । हिंदी में इस विधा के विकास में रांगेय राघव, फणीश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' और विवेकी राय जैसे रचनाकारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा ।

🧩 रिपोर्ताज के प्रकार

रिपोर्ताज को मुख्य रूप से निम्नलिखित श्रेणियों में बाँटा जा सकता है:

· सामाजिक रिपोर्ताज: समाज में व्याप्त समस्याओं, विसंगतियों और परिवर्तनों का चित्रण।
· युद्ध रिपोर्ताज: युद्धक्षेत्रों की मार्मिक और विशद झाँकियाँ।
· ऐतिहासिक रिपोर्ताज: ऐतिहासिक घटनाओं और उनके प्रभाव का वर्णन।
· भौगोलिक रिपोर्ताज: किसी विशिष्ट geographical क्षेत्र और वहाँ के जीवन का चित्रण।

📝 रिपोर्ताज लेखन की शैली

रिपोर्ताज में लेखक को विविध शैलियों का प्रयोग करने की स्वतंत्रता होती है। वह निबंध शैली, पत्र शैली, डायरी शैली आदि किसी का भी प्रयोग कर सकता है । इसकी भाषा सजीव, संवेदनशील और प्रभावोत्पादक होती है जो पाठक को घटना स्थल पर उपस्थित होने का आभास कराती है।

रिपोर्ताज的成功 का मुख्य आधार यह है कि इसमें घटना के सभी पात्रों का चित्रण होना चाहिए, तभी वह प्रभावपूर्ण सिद्ध हो सकता है । लेखक के लिए यह आवश्यक है कि वह जनसाधारण के जीवन की सच्ची और सही जानकारी रखे ।

🏆 हिंदी के प्रमुख रिपोर्ताज और उनके लेखक

क्रमांक रिपोर्ताज का नाम लेखक प्रकाशन वर्ष
1. लक्ष्मीपुरा शिवदान सिंह चौहान 1938
2. तूफानों के बीच रांगेय राघव 1946
3. देश की मिट्टी बुलाती है भदंत आनंद कौसल्यायन -
4. प्लाट का मोर्चा शमशेर बहादुर सिंह 1952
5. क्षण बोले कण मुस्काए कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' 1953
6. युद्ध यात्रा धर्मवीर भारती 1972
7. ऋणजल धनजल फणीश्वरनाथ रेणु 1977
8. जुलूस रूका है विवेकी राय 1977
9. नेपाली क्रांति कथा फणीश्वरनाथ रेणु 1978

तालिका: हिंदी साहित्य के कुछ प्रमुख रिपोर्ताज और उनके रचनाकार 

💫 निष्कर्ष: रिपोर्ताज का साहित्यिक महत्व

रिपोर्ताज आधुनिक साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा है जो वास्तविकता और कलात्मकता के बीच सर्वोत्तम समन्वय स्थापित करती है। यह विधा पाठकों को घटनास्थल का प्रत्यक्षदर्शी बना देती है और उनके हृदय को भाव-विभोर कर देती है ।

हिंदी साहित्य में रिपोर्ताज को वह ऊँचाई नहीं मिल सकी जो कि इसे मिलनी चाहिए थी , फिर भी इस विधा ने समाज के यथार्थ चित्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। रिपोर्ताज लेखक की भूमिका एक पत्रकार और कलाकार दोनों की होती है  जिसे जनसाधारण के जीवन की सच्ची और सही जानकारी होनी चाहिए।

इस प्रकार, रिपोर्ताज साहित्य की वह विधा है जो तथ्य और कला के समन्वय से पाठक के मन में घटना के प्रति सहानुभूति, करुणा, आक्रोश आदि भावों को जगाने का कार्य करती है और सामाजिक चेतना के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देती है।

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