मारे जाएंगे कविता की समीक्षा कीजिये?

राजेश जोशी की कविता **"मारे जाएँगे"** एक तीखी सामाजिक-राजनीतिक टिप्पणी है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सत्ता के दमन और सामूहिक पागलपन के बीच निरपराधों की नियति को उजागर करती है। यह कविता न केवल अपने समय (1988) बल्कि आज के सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों में भी प्रासंगिक बनी हुई है। नीचे इसकी समीक्षा और विशेषताएँ विस्तार से दी गई हैं:

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### **1. कविता का सारांश एवं प्रमुख संदेश**
कविता उन लोगों की नियति को चित्रित करती है जो सत्ता या समाज के "पागलपन" (हिंसा, अन्याय, चापलूसी) में शामिल नहीं होते। यह बताती है कि:
- सच बोलने वाले, निरपराध और निहत्थे लोगों को दमित किया जाएगा ।
- धर्म, कला और राजनीति के नाम पर चल रहे ढोंग का विरोध करने वालों को "काफ़िर" या "अपराधी" घोषित किया जाएगा ।
- सत्ता की मनमानी के खिलाफ खड़े होने वालों को कटघरे में खड़ा किया जाएगा ।

कवि का निष्कर्ष है:  
*"सबसे बड़ा अपराध है इस समय / निहत्थे और निरपराध होना"* ।

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### **2. काव्यात्मक विशेषताएँ**
#### **भाषा और शिल्प**
- **सरल पर प्रहारक भाषा**: कविता में सीधे और बिना लाग-लपेट के शब्दों का प्रयोग किया गया है, जैसे *"क़मीज़ पर जिनके दाग़ नहीं होंगे, मारे जाएँगे"* । यह भाषा पाठक को झकझोर देती है।
- **दोहराव की तकनीक**: "मारे जाएँगे" का बार-बार प्रयोग एक डरावनी पुनरावृत्ति पैदा करता है, जो सत्ता के दमन की निरंतरता को दर्शाता है ।
- **प्रतीकात्मकता**: "सफ़ेद क़मीज़" निष्कलंकता का प्रतीक है, जबकि "दाग़" भ्रष्टाचार और समझौतों की ओर इशारा करते हैं ।

#### **विषय-वस्तु**
- **सामयिकता**: कविता दंगों, सत्ता के दुरुपयोग और अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध जैसी समस्याओं को उठाती है। यह 1984 के सिख दंगों या अन्य साम्प्रदायिक हिंसा की पृष्ठभूमि में लिखी गई प्रतीत होती है ।
- **विरोध की आवाज़**: राजेश जोशी की यह कविता "ज़िद" (जिद्द) को जीवन की सबसे बड़ी ताकत बताती है, जिसे कोई सत्ता नहीं छीन सकती ।

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### **3. सामाजिक-राजनीतिक प्रासंगिकता**
- **सत्ता की आलोचना**: कवि स्पष्ट करता है कि दंगे सरकार की मिलीभगत के बिना नहीं होते और सच बोलने वालों को दबाया जाता है ।
- **धर्म और हिंसा**: धर्म के नाम पर जुलूसों में शामिल न होने वालों को "काफ़िर" घोषित करने की प्रवृत्ति पर करारा प्रहार ।
- **कला और सच्चाई**: कविता उन कलाकारों की नियति दिखाती है जो "चारण" (चापलूस) नहीं बनते और सत्ता से सवाल करते हैं ।

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### **4. अन्य रचनाओं से तुलना**
राजेश जोशी की अन्य रचनाएँ जैसे *"दो पंक्तियों के बीच"* (जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला) या *"बच्चे काम पर जा रहे हैं"* भी सामाजिक यथार्थ को उजागर करती हैं, पर *"मारे जाएँगे"* की भाषा अधिक कठोर और प्रत्यक्ष है ।

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### **5. निष्कर्ष**
यह कविता एक **दस्तावेज़** की तरह है, जो हर युग में सत्ता के दमन और सामूहिक हिंसा की पुनरावृत्ति को रेखांकित करती है। इसकी ताकत इसके **साहसिक सच** और **कलात्मक संयम** में निहित है। जोशी ने कोई समाधान नहीं सुझाया, पर सच को उजागर करके पाठकों को विचार करने के लिए मजबूर किया है। आज भी यह कविता अभिव्यक्ति की आज़ादी, साम्प्रदायिकता और राजनीतिक दमन के खिलाफ एक प्रतिबद्ध चेतावनी के रूप में प्रासंगिक है ।

> **साहित्यिक महत्व**: यह कविता हिंदी की आधुनिक प्रतिरोधी कविताओं में एक मील का पत्थर मानी जाती है, जो निराला या मुक्तिबोध की परंपरा को आगे बढ़ाती है ।

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